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________________ २८८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ८७ ० विनयशिक्षाधिकार: ० पञ्चमः स्तबका अनुमतयोरपि द्वयोर्भाषयोर्विनयशिक्षामाह - कालाइसंकिया जा जा वि य सव्वोपघाइणी होइ। आमंतणी य संगाइदूसिया जा ण तं भासे।।८७।। कालशङ्किता या अनिर्णीतकालसम्बन्धविषया यथा गमिष्यामः स्थास्याम इत्याद्या अनागतकाले, इदं करोमीत्याद्या वर्तमानकाले भवद्भिः सार्द्धमागतोऽहमिदं चाभ्यधामित्याद्या च (अतीतकाले) तां न भाषेत तथाभावनिश्चयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तेः * मोक्षरत्ना * सुव्रतस्वामिनं नत्वा स्तबके पञ्चमे खलु। साम्प्रतं दशवैकालिकाधिकारो विविच्यते ।।१।। प्रसङ्गसङ्गतिं प्रदर्शयति-अनुमतयोरिति। तीर्थंकरगणधरादिभिः साधूनां वक्तुमनुज्ञातयोः सत्याऽसत्यामृषाभाषयोरिति । विनयशिक्षामाहेति। सत्यप्रवादाभिधानात्पूर्वादुद्धतां, दशवैकालिकसप्तमाध्ययनमनुसृत्येति शेषः। विनयो नाम शुद्धवाक्यप्रयोगः विनीयते कर्माऽनेनेति व्युत्त्पत्त्येति श्रीहरिभद्रसूर्यभिप्रायः । अनुमतयोरपि द्वयोः भाषयोः सा वक्तव्या यभाषणे धर्मानतिक्रमो भवति तादृशः वाक्यप्रयोगो विनय इति श्रीजिनदासगणिमतम | विशेषेण यो नयो वक्तव्यः स विनय इत्यन्ये। त्रयोऽप्येते सदादेशा भगवदनुमतचित्रनयानुगामित्वादिति ध्येयम्। नन्वनुमतयोः द्वयोः भाषयोः स्वरुच्यनुसारेण भाषणे को नाम दोषो येन साम्प्रतं शिक्षाप्रदानं क्रियते? मैवम्, सत्याऽसत्यामृषान्यतरत्वावच्छेदेन भाषणानुज्ञा नास्ति किन्तु धर्मविशेषाक्रान्तसत्याऽसत्यामृषान्यतरत्वावच्छेदेन । धर्मविशेषबोधनार्थमेव साम्प्रतं प्रक्रियत इति न कोऽपि दोषः। तदुक्तं दशवैकालिके 'जा य सच्चा अवत्तव्वा सच्चामोसा अ जा मुसा| जा अ बुद्धेहिं नाइन्ना न तं भासिज्जा पन्नवं ।। असच्चमोसं सच्चं च अणवज्जमकक्कसं समुप्पेहमसंदिद्धं गिरं भासिज्जा पन्नवं ।। (द.वै. ७/२-३)। __ कालशङिकतेति। तदुक्तं दशवैकालिके 'तम्हा गच्छामो वक्खामो अमुगं वा णं भविस्सइ। अहं वा णं करिस्सामि एसो वा णं करिस्सइ ।। एवमाइ उ जा भासा एसकालंमि संकिआ। संपयाइअमढे तं पि धीरो विवज्जए। अइयंमि अ कालंमि पच्चुप्पण्णमणागए जत्थ संका भवे तं तु एवमेअंति नो वए। (द.वै.७/६-७-९) गमिष्याम इति। वयं अमुकं * कुसुमामोदा * तीर्थंकर गणधरादि भगवंतों से बोलने के लिए अनुज्ञात ऐसी सत्य और असत्यामृषा भाषाओं के सम्बन्ध में प्रकरणकार ८७ वीं गाथा से लेकर ९७ गाथापर्यन्त विनयशिक्षा हितशिक्षा देते हैं। अर्थात् सत्या और असत्यामृषा भी कब कैसे बोलना और कैसे न बोलना? इस बात को प्रकरणकार बता रहे हैं। गाथार्थ :- जो भाषा कालादि में शंकित है और जो भाषा सबकी उपघातक है जो आमंत्रणी भाषा संगादि दोष से दूषित है उस भाषा को नहीं बोलना चाहिए।८७। * कालशंकित भाषा बोलना निषिद्ध है * विवरणार्थ :- जिस भाषा के विषयभूत काल का निश्चय न हो उस भाषा का अवधारणपूर्वक प्रयोग करना निषिद्ध है। काल के तीन भेद हैं (१) भविष्यकाल (२) वर्तमानकाल (३) भूतकाल | अतः काल की दृष्टि से शंकित भाषा के तीन प्रकार होते हैं (१) भविष्यकालीन शंकित भाषा (२) वर्तमानकालिक शंकित भाषा (३) अतीतकालीन शंकित भाषा। यहाँ आद्य भाषा के प्रयोग को विवरणकार बताते हैं कि - 'हम जायेंगे' 'हम रहेंगे' इत्यादि । वर्तमानकालीन शंकित भाषा का उदाहरण मैं यह करता हूँ' इत्यादि है। मैं आप के साथ ही आया था, मैंने यह कहा था' इत्यादि अतीतकालीन शंकित भाषा का उदाहरण है। जब जिस क्रिया का होना संदिग्ध हो तब उपर्युक्त भाषा का प्रयोग कालशंकित भाषारूप बन जाता है। इससे यह ज्ञात होता है कि जिस काल में जिस क्रिया का होना संदिग्ध हो उसे निश्चयपूर्ण शब्दो में बोलने का. निषेध किया गया है। इसका कारण यह है कि उस उस क्रिया का उस उस काल में हो सकने का निश्चय न होने से शायद उस काल में वह किया न हो तब वह भाषा व्यभिचारी होने से मृषा बन जाती है। दूसरी बात यह है कि बुखार, बारिस आदि की बदौलत जाने में विघ्न आ जाए और न जा सके तब गृहस्थों के बीच में साधु का लाघव, शासन की अपभ्राजना आदि दोष होते हैं। मैं आपके यहाँ कल गोचरी के लिए आऊँगा,' हम कल विहार करनेवाले हैं' इत्यादि भाषा का प्रयोग साधु के लिए निषिद्ध है, क्योंकि बारिस आदि की बदौलत साधु दूसरे दिन उस गृहस्थ के घर गोचरी न जा सके या विहार न कर सके तब लोंगों को यह महसूस होता है कि 'साधु भगवंत को कल क्या होनेवाला है इसका भी ज्ञान नहीं होता है। ये लोग झूठ बोलते हैं । अतः सब कार्य में वर्तमान जोग' यानी जैसा अवसर' इन शब्द का प्रयोग करनायह गणधर भगवंत आदि की साधु भगवंत के लिए सूचना विधान है। १ कालादिशङ्किता यापि च सर्वोपघातिनी भवति। आमंत्रणी च संगादिदूषिता या न तां भाषेत ।।८७।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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