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________________ २४३ * असत्यामृषा भावभाषा * चतुर्थः स्तबकः अथ प्रतिज्ञातनिरूपणाया एवासत्यामषाया लक्षणाभिधानपूर्व विभागमाह अणहिगया जा तीसुवि, ण य आराहणविराहणुवउत्ता। भासा असच्चमोसा, एसा भणिया दुवालसहा।।६९।। १आमंतणि आणवणीर जायणि३ तह पच्छणीय पन्नवणी५। पच्चक्खाणीहभासा भासा इच्छाणुलोमाण्य ।।७०।। २अणभिग्गहिआ८ भासा, भासा य अभिग्गहम्मिए बोधव्वा। संसयकरणी१०भासा, वायड११ अव्वायडा१२ चेव ।।७१।। या तिसृस्वपि = सत्या-मृषा-सत्यामृषाभाषासु अनधिकृता। एतेन 'उक्तभाषात्रयविलक्षणभाषात्वं' एतल्लक्षणमुक्तम् । च = पुनः न आराधनविराधनोपयुक्ता । एतेनापि परिभाषानियन्त्रितं अनाराधकविराधकत्वं लक्षणान्तरमाक्षिप्तम् । एषाऽसत्यामृषा भाषा द्वादशधा श्रीजिनं हर्षतो नत्वा त्रैशलेयं महाप्रज्ञम् । चतुर्थस्तबकेऽसत्यामृषा व्याख्यायते मया।।१।। महामहोपाध्यायः साम्प्रतं प्रतिज्ञाताऽसत्यामृषाभावभाषालक्षणाद्याह 'अणहिगया' इति उक्तभाषात्रयविलक्षणभाषात्वमिति। एतेन इयं भाषा सत्यैव असत्यादिलक्षणविरहादिति प्रत्युक्तं विनिगमनाविरहेण सत्यालक्षणायोगतोऽसत्यत्वप्रसङ्गात्, अप्रयोजकत्वाच्च । न ह्येवं भवति यदयं नपुंसकः स पुमान् अस्त्रीत्वात् । यद्वा नपुंसकः स्त्री अपुंस्त्वादिति। स्त्रीपुंसाभ्यामन्य एव नपुंसकः तथोपलभ्यमानत्वात्। एवं सत्यादितोऽन्यैवाऽसत्यामृषा हेतु-स्वरूपफलभेदात्। एतेनाऽसत्यामृषात्वस्य कल्पितत्वं निरस्तम् यथा चैतत्तत्त्वं तथाऽऽमन्त्रणीनिरूपणे स्फुटीभविष्यतीति किमिह प्रयासेन? अनाराधकविराधकत्वमिति । इयं हि नैव आराधनी तल्लक्षणविगमात् । ननु प्रज्ञापनायां सर्वा अपि भाषा आयुक्तं भाषमाणस्याऽऽराधकत्वोपदेशात्कथं हेतोः स्वरूपासिद्धिदोषकायॆमपाक्रियते? न च तत्र भाषमाणस्याऽऽराधकत्वमुक्तं, अत्र च भाषाया आराधनीलक्षणशून्यत्वमिति न विरोध इति वाच्यम् तद्भाषाया आराधनीलक्षणविनिर्मुक्तत्वे तस्याऽऽराधकत्वायोगादिति चेत्? उच्यते तथाविधनैश्चयिकाऽऽराधकत्वसम्भवेऽपि व्यावहारिकाऽऽराधकत्वलक्षणविरहस्याऽभिप्रेतत्वान्न दोषः । नापीयं विराधिनी सद्भूतप्रतिषेधत्वाद्यभावात् । नापीयमाराधनविराधिनी एकदेशसंवादविसंवादाऽभावात् । अतो युक्तमुक्तमनाराधकविराधकत्वमिति। अत्र च स्वरूपतोऽनाराधक-विराधकत्वं ग्राह्यं न तु हेतुतः फलतो वा तेन न कश्चिद्दोष इति समाकलितस्वसमयरहस्यैर्दिव्यदृशा निभालनीयम्। * असत्यामृषा भावभाषा के लक्षण एवं १२ भेद का निरूपण * गाथार्थ :- जो सत्यादि तीन भाषा में अनधिकृत हो और जो आराधक और विराधक भी न हो वह भाषा असत्यामृषा भाषा है जिसके १२ भेद हैं।।६९।। गाथार्थ :- (१) आमंत्रणीभाषा, (२) आज्ञापनी भाषा, (३) याचनी भाषा, (४) पृच्छनी भाषा, (५) प्रज्ञापनी भाषा, (६) प्रत्याख्यानी भाषा, (७) इच्छानुलोमा भाषा, (८) अनभिगृहीत भाषा, (९) अभिगृहीत भाषा, (१०) संशयकरणी भाषा, (११) व्याकृत भाषा, (१२) अव्याकृत भाषा । ७०-७१।। विवरणार्थ :- जो भाषा सत्य, मृषा और सत्यामृषा में अनधिकृत हो वह भाषा असत्यामृषा भाषा है। इस कथन से यह प्राप्त होता है कि 'सत्यादि तीन भाषा से व्यावृत्त-विलक्षण भाषात्व जहाँ हो वह असत्यामृषा भाषा है। अर्थात् सत्यादि तीन भाषा से विलक्षण भाषात्व ही असत्यामृषा भाषा का लक्षण है। आगे यह बताया गया है कि वह भाषा आराधन, विराधन में उपयुक्त नहीं होती है, अर्थात् असत्यामृषा भाषा न आराधक है, न विराधक है। अतः असत्यामृषा भाषा का अनाराधकविराधकत्वरूप दूसरा लक्षण प्राप्त होता है। यह लक्षण परिभाषा से नियन्त्रित है अर्थात् दूसरा लक्षण पारिभाषिक है। आगम में असत्यामृषा भाषा के १२ भेद बताये गये हैं। देखिये (१) आमंत्रणीभाषा, (२) आज्ञापनी भाषा, (३) याचनी भाषा, (४) पृच्छनी भाषा, (५) प्रज्ञापनी भाषा, (६) प्रत्याख्यानी भाषा, (७) इच्छानुलोमा भाषा, (८) अनभिगृहीत भाषा, (९) अभिगृहीत भाषा, (१०) संशयकरणी भाषा, (११) व्याकृत भाषा, (१२) अव्याकृत भाषा।।६९-७०-७१।। असत्यामृषा भाषा के भेदों के निरूपण में सर्व प्रथम प्रकरणकार आमन्त्रणी भाषा को, जो कि असत्यामृषा भाषा का प्रथम भेद है, ७२ वीं गाथा से बताते हैं। गाथार्थ :- जो भाषा संबोधनयुक्त होती है और जिसको सुन कर श्रोता को अवधान होता है वह भाषा आमन्त्रणी है - ऐसा तत्त्वदर्शी पुरुषों ने कहा है।७२। १ आमन्त्रणी आज्ञापनी याचनी तथा पृच्छनी च प्रज्ञापनी। प्रत्याख्यानी भाषा भाषा इच्छानुलोमा च।।७० ।। २ अनभिगृहीता भाषा भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या। संशयकरणी भाषा व्याकृताऽव्याकृता चैव ।।७१।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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