SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३९ * यादृच्छिकविवक्षायाः सत्यत्वाऽसम्पादकत्वम् * उक्तौ। एवं च प्रायिकप्रयोगविवक्षाहेतुं विना यादृच्छिकदुष्टप्रयोगविवक्षाप्रसूतभाषाया मृषात्वमेवाऽवसीयते। तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्ति ।।५।। उक्ता परित्तमिश्रिता ८ । अथाऽद्धामिश्रितामाह 'सच्चामोसा भासा, सा अद्धामीसिया भवे जत्थ। भन्नइ पओअणवसा दिवसनिसाणं विवज्जासो।।६६ ।। सा अद्धामिश्रिता सत्यामृषा भाषा भवेत् यत्र प्रयोजनवशादिवसनिशयोर्विपर्यासो भण्यते। यथाऽपरिणत एव दिवसे वैलक्षण्मस्तीति सिध्यति। एवं म्लानकन्दत्वमपि भावनीयम् । विवक्षाहेतू इति। प्रत्येकानन्तकायविषयकप्रायिकवचनप्रयोगविवक्षाहेतू इत्यर्थः । एवं चेति तादृशविवक्षाहेतुप्रतिपादनेन चेति। यादृच्छिकदुष्टप्रयोगविवक्षाप्रसूतभाषाया = स्वच्छन्दमतिकल्पिताऽवधारणवचनप्रयोगतात्पर्यजनितभाषाया इति। यत्किंचन निमित्तं द्रष्ट्वाऽद्रष्ट्वा वा 'अनन्तकायिक एवायं' इत्यादिभाषाया मृषात्वमेव न सत्यामृषात्वं दुष्टविवक्षाजन्यत्वात्। यदि चागमोक्तलिङ्गविशेषनिश्चये सति 'प्रायोऽयमनन्तकाय' इत्याधुच्यते तदा न मृषात्वमित्याभाति ।।५।। प्रत्येककायिक हो गये हैं। केवल उस पर पानी का सिंचन करने से कुछ नये पत्ते (किसलय) पैदा हुए हैं। अतः प्रत्येककाय से मिश्र अनन्तकाय को विषय बनानेवाली यह भाषा भी अनन्तमिश्रित कही जाती है। प्रत्येकमिश्रित भाषा वह है, जैसे कि अभी अनंतकायिक मूले को जमीन से बाहर निकालने पर वह म्लान होने से कोई ऐसा कहे कि 'यह संपूर्ण प्रत्येककाय है'। इस भाषा को प्रत्येकमिश्रित भाषा कहने का कारण यह है कि मूले = जमीनकंद के बाहर के भाग में रहे हुए जीव म्लान हो जाने का कारण प्रत्येककाय हो चुके हैं मगर जमीनकंद के मध्य भाग में तो अनंतजीव ही रहे हुए हैं। मध्य भाग में रहे हुए अनंतकाय से मिश्रित ऐसे प्रत्येककाय को विषय बनानेवाली भाषा को परित्तमिश्रित कहना ठीक ही है। यथा नाम तथा गुण। * चूर्णिकार के वचन का फलितार्थ * अत्र हि. इति। महनीय श्रीजिनदासगणिमहत्तर ने उपर यह बताया कि अनन्तकायिक मूले के पत्ते जीर्ण-शीर्ण होने से प्रत्येककायिक हो गये हैं। इससे यह ध्वनित होता है कि बडे जीर्णपत्र प्रत्येककाय के प्रायिक प्रयोग की विवक्षा का हेतु हैं। अर्थात् जमीनकंद होते हुए भी यदि उसके पत्ते जीर्ण-शीर्ण हो चूके हो तो वह प्रत्येककाय होने की संभावना है। बड़े होने से किसलय अवस्था को मूले के पत्ते छोड चूके हैं। इसलिए वे प्रत्येक काय होते हैं। बडापन यहाँ प्रत्येककायिकत्व के हेतुरूप से बताया गया है। जमीनकन्द होने से वह अनन्तकायिक तो है ही। अतः प्रत्येककाय और अनंतकाय के प्रयोग का निमित्त होता है ऐसा जो पूर्व में कहा था वह चूर्णिकार के वचन से सिद्ध होता है। इसी तरह परित्तमिश्रित के उदाहरण में चूर्णिकार ने जो यह कहा कि - 'जमीनकंद म्लान होने से कोई ऐसा कहे कि "यह संपूर्ण प्रत्येककाय है"। इससे यह फलित होता है कि म्लानकंदत्व यानी जमीनकंद की म्लानावस्था प्रायिक प्रत्येककाय प्रयोग की विवक्षा की हेतु है। इस तरह चूर्णिकार के वचन से यह साफ साफ मालुम हो जाता है कि जीर्णपत्रत्व और म्लानकन्दत्व प्रायिकप्रयोग की विवक्षा के हेतु हैं। अर्थात् जब जीर्णपत्रत्व आदि का निश्चय हो तब 'यह प्रायः प्रत्येककाय है' इत्यादि प्रयोग करना उचित है। मगर प्रायिकविवक्षा के बिना अपनी मनगडंत इच्छा के अनुसार, आगमकथित निमित्त की अपेक्षा किये बिना ही, दुष्ट (सदोष) प्रयोग की विवक्षा से यह कहना कि 'यह प्रत्येककाय ही है' वह भाषा तो मृषा ही होती है - यह ज्ञात होता है। यह विषय अत्यंत गंभीर है। अतः इस विषय में तत्त्वनिर्णय तो बहुश्रुत पुरुषों से ही ज्ञातव्य है। इस गंभीर तत्त्व को तो बहुश्रुत पुरुष जानते हैं। इस तरह इस विषय की गंभीरता को और अपनी पापभीरुता को व्यक्त कर के विवरणकार परित्तमिश्रित भाषारूप सत्यामृषाभाषा के ८ वें भेद के विवेचन को तिलांजलि देते हैं।।६५।। अब मिश्रभाषा के ९वाँ भेद अद्धामिश्रित ६६ वीं गाथा से बताया जाता है। गाथार्थ :- प्रयोजनवश दिन और रात का विपर्यास जिस भाषा में हो वह अद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा है।६६ । * अद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा ९/३ * विवरणार्थ :- अद्धामिश्रित सत्यामृषा भाषा वह होती है जिसमें प्रयोजनविशेष के कारण दिन और रात्री का विपर्यास बताया १. सत्यामृषा भाषा साऽद्धामिश्रिता भवेद्यत्र । भण्यते प्रयोजनवशादिवसनिशयोर्विपर्यासः ।।६६ ।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy