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________________ २२८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.३. गा. ५८ ० आंशिकसंवादविसंवादयोर्मिश्रत्वसम्पादकत्वोक्तिः ० स्याऽप्यदत्तापलापद्वारा निग्रहप्रयोजकत्वात्, अन्यथा जाताजाताविषयभेदेन प्रकृतप्रयोगोच्छेदप्रसङ्गात्। न च दशसंख्यापर्याप्तेरद्य जातेषु बाधात्सर्वथा मृषात्वम्, अन्यथा 'एको न द्वौ' इति न स्यादिति वाच्यम्, दशस्वेतत्कालोत्पत्तिकाभेदांशेन संवादादिति दिग्। एवमन्यत्राऽप्यूह्यम् १।५८ ।। उक्ता उत्पन्नमिश्रिता। अथ विगतमिश्रितामाह वस्तुतस्तु अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सिद्धं निग्रहकारणत्वमदत्तापलापस्थमव्युत्पन्नस्यांशिकमृषाभाषित्वे भासत इति ध्येयम्। . विपक्षे बाधकतर्कमाह अन्यथेति। मुख्यांशिकसत्यत्वानङ्गीकारे। प्रकृतप्रयोगोच्छेदप्रसङ्गादिति। उत्पन्नानुत्पन्नरूपविषयभेदेन भ्रमप्रमाजनकत्वमादाय कृतप्रकृतप्रयोगस्य स्थूलव्यवहारनयाभिप्रायेणांशिकसत्यामृषात्वाक्रान्तस्यांऽऽशिकसंवादात् सर्वथा मृषात्वेनाऽव्यवहृतस्योच्छेदापत्तेरिति भावनीयम्। सङ्ख्याशब्दानां पर्याप्त्याऽन्वयबोध एव साकाङ्क्षत्वमित्याशयवतः शङ्कामपहस्तयितुमाह - न च दशसङ्ख्यापर्याप्तेरिति । पर्याप्तित्वं चाऽत्राऽनित्यत्वे सति व्याप्यवृत्तित्वे सति स्वरूपभिन्नसम्बन्धत्वरूपं बोध्यम्। दशसङ्ख्यापर्याप्तेर्यद्वा पर्याप्तिसम्बन्धेन दशसङ्ख्याया अद्यजातेष्वभावेनोद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेन बाधितसंसर्गकविधेयतावच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताकशाब्दधीजनकत्वात्सर्वथा मृषात्वमेव, न तु सत्यामृषात्वम् । विपक्षे बाधकमाह अन्यथेति। उद्देश्यतावच्छेदकावच्छेदेन विधेयतावच्छेदकावच्छिन्नत्वप्रकारेणैवाऽन्वयो भवतीति व्युत्पत्त्यस्वीकारे। 'एको न द्वाविति। एकत्ववत्यपि द्वित्वावच्छिन्नत्वरूपेणाऽन्योन्याभावस्य सत्त्वात् 'एको न द्वौ' इति व्यवहारो भवति, तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकज्ञानस्य तद्विशेष्यक-तत्प्रकारकव्यवहारप्रयोजकत्वात् । इति न स्यादिति इति प्रयोगो न स्यात। तादृशव्युत्पत्त्यस्वीकारे द्वित्वेनोपस्थितयोः प्रत्येक भेदान्वयस्य बाधितत्वात् 'एको न द्वौ' इति शाब्दव्यवहारो न स्यादिति द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावस्यैवाऽत्र विषयत्वं सिध्यतीति शङ्काशयः। समाधत्ते-दशष्वेतत्कालोत्पत्तिकाभेदस्यांशेन संवादादिति। दशसु पञ्चसङ्ख्याद्वयाश्रयेषु दारकेष्वंशेनैतत्कालोप्रयोजक है। इससे - दातार में जो सत्यभाषित्व आंशिक भी है वह औपचारिक ही है, मुख्य नहीं - ऐसा कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि दातार जब शेष पन्नास रूपए को देने का इन्कार नहीं करता है तब उसका - यह मृषाभाषी है - ऐसा निग्रह नहीं होता है। यह मानना युक्तिसंगत भी है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाए तब तो उत्पन्न-अनुत्पन्नरूप विषय के भेद से सत्यामृषास्वरूप उत्पन्नमिश्रितभाषा का जो प्रयोग हुआ है उसीका उच्छेद हो जायेगा। उस भाषा में आंशिक सत्यत्व भी मुख्य रूप से न हो तब तो - "वह मिश्रभाषा है, मृषा नहीं" - यह लौकिक व्यवहार ही उपपन्न नहीं हो सकेगा। अतः मानना होगा कि मिश्रभाषा में आंशिक सत्यत्व औपचारिक नहीं है, मगर मुख्य ही है। __ शंका :- न च. इति । अद्यकालोत्पन्न बालक में दश संख्या की पर्याप्ति का, जिसका विधान किया गया है, बाध होने से यह भाषा सर्वथा मृषा ही है, न कि सत्यामृषा । आशय यह है कि दश संख्या की पर्याप्ति एक, दो या तीन बालक में नहीं रहती है मगर दश बालक में ही रहती है, क्योंकि वह दश व्यक्ति में ही पर्याप्त होती है, एक - दो व्यक्ति में नहीं। प्रस्तुत में तो उत्पन्न बालक पाँच होने से उनमें दशसंख्यापर्याप्ति नहीं रह सकती है। अतः जिसका विधान किया जाता है उसका उद्देश्य में बाध होने से यह वचन मृषा ही सिद्ध होता है। यदि ऐसा न माना जाए तब 'एको न द्वौ' ऐसा जो प्रयोग होता है उसकी कथमपि उपपत्ति न हो सकेगी। आशय यह है कि एकत्वसंख्याविशिष्ट व्यक्ति द्वित्वसंख्याविशिष्ट होती नहीं है। अतः एकत्वसंख्या से विशिष्ट द्वित्वसंख्याविशिष्ट से भिन्न है इस तात्पर्य से 'एको न द्वौ' वाक्य का प्रयोग होता है। मगर यदि 'एको न द्वौ' वाक्य का अर्थ ऐसा किया जाय कि द्वित्वसंख्या की आश्रयभूत दो व्यक्ति में से एकव्यक्ति तो एकत्वसंख्या से विशिष्ट है ही तब 'एको न द्वौ' ऐसा प्रयोग नहीं हो सकेगा। मगर 'एको न द्वौ' ऐसा शब्दप्रयोग लोक में होता है इसीसे यह सिद्ध होता है कि - एकत्वविशिष्ट में द्वित्वसंख्या की पर्याप्ति न होने से या तो पर्याप्ति संबंध से द्वित्व न होने से द्वित्वसंख्याविशिष्ट व्यक्ति का भेद एकत्वविशिष्ट में रहता है - इसी तात्पर्य से वह प्रयोग किया जाता है। वैसे यहाँ भी दशसंख्या की पर्याप्ति या पर्याप्ति संबंध से दश संख्या अद्य उत्पन्न बालको में न होने से वह भाषा मृषा ही है।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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