SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.२. गा. ५५ ० भाषायां यथासम्भवविभागान्तराविष्करणम् ० वेत्यादिः। अर्थान्तरं नाम 'अन्यत्र वस्तुनि अन्यशब्दप्रयोगो यथा गव्यश्वशब्दाभिधानम् ३। च = पुनः, गर्दा = निन्दाभिप्रायेण 'नीचत्वव्यञ्जकाणां सतामप्यशोभनधर्माणामभिधानम् | यथा काणोऽयं, बधिरोऽयमित्यादिः ४। इति = अमुना प्रकारेण, चतुर्धा वा मृषा भाषा। इत्थं च यथायोगं विभागान्तरमपि विभावनीयम् ।।५४ ।। अथ मृषाभाषानिरूपणस्य सिद्धत्वं सत्यामृषानिरूपणप्रतिज्ञां चाह एवमसच्चा भाषा, निरूविया पवयणस्स नीईए। सच्चामोसं भासं, अओ परं कित्तइस्सामि ।।५५।। स्पष्टा ।।५५।। अर्थान्तरमिति। अयं भेदः 'तृतीयस्थानाङ्गप्रदर्शिततदन्यवचने यद्वा "चतुर्थस्थानागप्रदर्शितविसंवादनायोगरूपासत्येऽन्तर्भवतीति यथासम्भवमागमनीत्या बहुश्रुतपुरुषैर्भावनीयम्। गर्हेति। स्थानाङ्गप्रदर्शिता 'त्रिविधा चतुर्विधा वा गर्दाऽत्र न संभवति विरुद्धत्वप्रसङ्गादत आह निन्दाभिप्रायेणेति । इदं चोपलक्षणं सावधव्यापारप्रर्वत्तनाभिप्रायादिप्रयुक्तवचनादीनाम् । तदुक्तं धर्मसंग्रहवृत्तौ 'गर्हा तु त्रिधा । एका सावधव्यापारप्रवर्तिनी यथा 'क्षेत्रं कृष'त्यादि । द्वितीयाऽप्रिया - काणं काणं वदतः । तृतीया आक्रोशरूपा यथा - 'अरे! वान्धकिनेय! इत्यादि' (ध. सं.- श्लो.२६ वृत्ति) विभागान्तरमपीति। कायानजुकतादिरूपोऽन्यविभागोऽपीत्यर्थः तदुक्तं स्थानाङ्ग 'चउविहे मोसे पन्नत्ते तं जहा कायअणुज्जुयया, भासअणुज्जुयया, भावअणुज्जुयया विसंवादणाजोगे। (स्था. ४/१/२६४) एवं स्थूलमृषाभाषा सूक्ष्ममृषाभाषेति मृषाभाषाद्वैविध्यम्। यद्वा लौकिकमृषाभाषा लोकोत्तरमृषाभाषेति मृषाभाषाद्वैविध्यम्। एवं नयान्तरापेक्षया सूक्ष्ममीक्षणीयम्। न चैवमागम - विरोधः, निक्षेपस्थलवदत्रापि विभाजकान्तरोपस्थितौ विभागान्तरस्येष्टत्वात् । अनेनैवाभिप्रायेण विभावनीयमित्युक्तम् ।।५४।। स्पष्टेति। स्पष्टत्वाद् नेयं विवृता। अत एवास्माभिरपि न तत्र श्रमो विधीयते । भावभाषाधिकारे हि दशविधमषावचः | व्याख्यापद्धतिमानिन्ये यशोविजयधीमता||१|| इति मुनियशोविजयविरचितायां मोक्षरत्नाभिधानायां भाषारहस्यविवरणटीकायां द्वितीयः स्तबकः । अर्थान्तर. इति । मृषाभाषा का तृतीय भेद है अर्थान्तर यानी अलग वस्तु का अलग शब्द से प्रतिपादन करना। जैसे कि गाय को घोडा कहना। यहाँ गाय में गाय शब्द का प्रयोग करना चाहिए मगर घोडा शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः यह अर्थान्तर मृषाभाषास्वरूप है। गर्हा. इति। मृषाभाषा का चतुर्थ भेद है गर्दा यानी निन्दा के तात्पर्य से प्रतिपाद्य = संबोध्य व्यक्ति में नीचता = हलकाई के सूचक होते हुए भी अशुभ धर्म का प्रतिपादन करना। अर्थात् जिन शब्दों के प्रयोग से सामनेवाली व्यक्ति निम्न कक्षा की है - हीन है, यह भान हो उन शब्दों का उस व्यक्ति की निन्दा के अभिप्राय से प्रयोग करना यह गर्हास्वरूप मृषाभाषा है। जैसे कि जिसको एक आँख नहीं है उसकी निन्दा के अभिप्राय से उसे 'अरे! ओ काणिया!' ऐसा कहना या बधिर व्यक्ति को निन्दा के अभिप्राय से 'अरे! बहेरा!' इत्यादि रूप से पुकारना यह गहस्विरूप मृषाभाषा है, क्योंकि उपर्युक्त भाषा संबोध्य व्यक्ति में हीनता को बताती है। इस तरह मृषाभाषा के विकल्प से चार भेद भी हो सकते हैं। इस तरह यथासंभव अन्यरूप से मृषाभाषा का अन्य विभाग स्वयं चिंतन-मनन करने योग्य है - ऐसी सूचना दे कर विवरणकार मृषाभाषा का विवरण समाप्त करते हैं। ।५४ ।। अब प्रकरणकार मृषाभाषा के प्रतिपादन की संपूर्णता और सत्यामृषा भाषा के निरूपण की प्रतिज्ञा को ५५वीं गाथा से बता रहे गाथार्थ :- इस तरह आगमनीति के अनुसार असत्यभाषा क, निरूपण पूर्ण हुआ। अब मैं असत्यामृषा भाषा का कीर्तन=निरूपण करूँगा।।५५।। गाथा का अर्थ स्पष्ट होने से विवरणकार ने इसका विवरण नहीं बनाया है। ३८ से ले कर ५४ गाथा पर्यन्त असत्यभाषा का विवरण आगम के तात्पर्य का उल्लंघन किये बिना किया गया है - यह बात अत्यंत स्पष्ट ही है। १. अत्र च मुद्रितप्रतौ - 'नीचत्वव्यञ्जककाणाङ्गताद्यशोभनधर्माणां - इति पाठो निर्दिष्टो वर्त्तते। २. दृश्यतां स्थानांग ३/३/१७५ सूत्रे। ३. दृश्यतां स्थानांगसूत्र ४/१/२५४ इत्यत्र । ४. दृश्यतां स्थानांगसूत्र ३/१/१२७ इत्यत्र । ५. दृश्यतां स्थानांगसूत्र ४/२/२८८ इत्यत्र ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy