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________________ * मोहोदयाननुविद्धस्य प्रेम्णः प्रशस्तत्वम् * २०७ स्पष्टा। नवरं 'तवाहं दास' इति स्नेहाकुलस्य प्रियतमस्य प्रियतमां प्रति वचनं, 'प्रेम च तीव्रतरमोहोदयजनितः परिणामविशेष इति ध्येयम् । शेषं स्पष्टम् ५।।४६ ।। उक्ता प्रेमनिःसृता। अथ द्वेषनिःसृतामाह सा दोसणिस्सिया खलु दोसाविट्ठो कहेइ जं भासं। जह न जिणो कयकिच्चो, अहवा सव्वंपि तव्वयणं ।।४७।। स्पष्टा। नवरं 'न जिनः कृतकृत्य' इत्यभिनिविष्टपाखण्डिकस्य -' इन्द्रजालकल्पया विद्ययाऽतिशयेनैव वाऽयमैश्वर्यं दर्शयति न जायते। अभिलाषो द्विजश्रेष्ठ! स लोभः परिकीर्तितः।। ( ) ततो निर्गतेत्यर्थः । ।४५ ।। स्नेहाकुलस्येति । स्नेह स्वाभाविकी प्रीतिः । तदुक्तम् दर्शने स्पर्शने वाऽपि श्रवणे भाषणेऽपि वा। यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते ।। ( ) तेनाकुलः चञ्चलचित्तः स्नेहाकुलः तस्येत्यर्थः । परिणामविशेष इति । अध्यवसायविशेषो भावबन्धनरूपः, तदुक्तम्सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे । यद्भावबन्धनं युनोः स प्रेम परिकीर्तितः।। ( ) इति । अत एव देवगुर्वादिविषयकेण प्रीतिप्रकर्षेण यदुच्यते तन्न मृषा, मोहोदयाजनितत्वादिति सूचनार्थं ध्येयमित्युक्तम् ।।४६ ।। इन्द्रजालकल्पयेति। मन्त्रौषधादिभिश्चक्षुरादिप्रतिबन्देनाऽन्यथाप्रतिभानप्रयोजकं इन्द्रजालं, तत्कल्पा = तत्तुल्या, तया विद्ययेत्यर्थः। अतिशयेनैवेति। दुर्घटघटनाघटनपटुः परवञ्चकः शक्तिविशेषोऽतिशय इत्येवमतिशय-लक्षणं पाखण्डिनामऽभिमतम् । वस्तुतस्तु तीर्थकरेतरवृत्तिर्गुणविशेषः । तदुक्तं प्रकरणकारेण आध्यात्मिकपरीक्षायाम् - सहजदेवकृतक्षायिकत्वोपाधिभेदावच्छिन्नभेदप्रतियोग्यव्यासज्यवृत्तितीर्थकरत्वसमानाधिकरणो विशेषगुण एवातिशयः (आ.प.श्लो.४ वृत्ति) इति । * प्रेमनिःसृत मृषा भाषा - ५/२ ** विवरणार्थ :- पूर्व की तरह श्लोकार्ध से प्रेमनिःसृत भाषा के लक्षण का प्रतिपादन होता है जो स्पष्ट ही है और यहाँ गाथार्थ में बताया गया है। उदाहरण में विशेषता यह है कि - स्नेहराग से आकुल प्रियतम = प्रिया का स्वामी अपनी प्रिया को कहता है कि - मैं तेरा गुलाम हूँ - यह वचन प्रेमनिःसृत मृषाभाषा है। स्पष्ट ही है कि प्रिया का स्वामी होते हुए भी प्रिया का दासत्व का प्रदर्शक वचन द्रव्यतः और भावतः मृषा ही है। विवरणकार प्रेम के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि प्रेम अत्यंत तीव्र मोह के उदय से जनित आत्मा के परिणामविशेषरूप है इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। अतः देव-गुरु आदि विषयक प्रीतिविशेष से जो कहा जाता है वह प्रेमनिःसृत मृषाभाषा स्वरूप नहीं होता है। शेष व्याख्यान पूर्ववत् ज्ञातव्य है जो संक्षेप से गाथार्थ में ही बताया गया है।।४६।। प्रेमनिःसृत मृषाभाषा का निरूपण हुआ। अब श्रीमद् ४७वीं गाथा से द्वेषनिःसृत मृषाभाषा को, जो कि असत्यभाषा का छट्ठा भेद है, बताते हैं। ___ गाथार्थ :- द्वेष से व्याप्त जीव जो बोलता है कि - जिनेश्वर कृतकृत्य नहीं है - इत्यादि, वह वचन द्वेषनिःसृत मृषाभाषा है। या तो द्वेषप्रयुक्त सर्व भाषा द्वेषनिःसृत मृषाभाषा ही है।४७। * द्वेषनिःसृत मृषाभाषा - ६/२ * विवरणार्थ :- गाथार्थ तो स्पष्ट ही है। पूर्वार्ध से द्वेषनिःसृत भाषा का लक्षण बताया गया है और पश्चार्द्ध के प्रथम पाद से दृष्टान्त का प्रदर्शन किया गया है। दृष्टांत का भावार्थ यह है कि कदाग्रहग्रस्त दुर्मति ३६३ पाखंडी आदि का, जो कि श्रीजिनेश्वर १ अत्र मुद्रितप्रतौ - प्रेमवतीप्रवरमोहोदय - इति पाठेऽशुद्धो वर्त्तते । २ सा दोषनिःसृता खलु, दोषाविष्टः कथयति या भाषाम् । यथा न जिनः कृतकृत्योऽथवा सर्वमपि तद्वचनम् ।।४७।। ३ अत्र मुद्रितप्रतौ - इन्द्रजालिकतया विद्यातिशयेनैव कार्य(चाय)मैश्वर्य "-इति अशुद्धः पाठः ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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