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________________ १९६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३७ ० हेतुवादागमवादविषयमीमांसा 0 वैफल्यप्रसङ्गात्, हेतुग्राह्याणामर्थानामाज्ञाग्राह्यतया पर्यवसाननिमित्तकाशातनाप्रसङ्गाच्चेति व्यज्यते। मावश्यकनियुक्तौ - जं जह सुअम्मि भणिअं, तं तहेव जइ वियालणा नत्थि। किं कालिआणुओगो दिट्ठो दिट्ठीपहाणेहिं ।। (आ. नि.) न च साम्प्रतं कालिकानुयोगस्य विच्छिन्नत्वाद् यथाश्रुतार्थव्याख्यानमेव साम्प्रतमिति वाच्यम्, अधुनाऽपि तस्य तादृशमेधासम्पन्नशिष्यादिकं प्रतिविहितत्वाद् । तदुक्तं 'आसज्ज उ सोयारं, नए नयविसारओ बूया' (आ.नि. ७६१) पदार्थ-वाक्यार्थ-महावाक्याथै दम्पर्यार्थक्रमेणार्थव्याख्यानस्य उपदेशपदादौ महता प्रबन्धेन प्रतिपादितत्वादिह न वितन्यते। __आज्ञाग्राह्यतया पर्यवसाननिमित्तकाशातनाप्रसङ्गाच्चेति । अयं भावः, तर्कानुमानादिना बोध्यानामर्थानां वाक्यार्थमहावाक्यार्थादिपर्यालोचनं विनैव यथाश्रुतार्थव्याख्यानेन फलत आगमग्राह्यतापादानप्रयुक्तागमाशांतनाप्रसङ्गाच्चेत्यर्थः। तदुक्तं सम्मती 'जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ, आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो।। (सं. त. ३/४५) हेतुग्राह्यस्याऽऽगमग्राह्यतापादनेन श्रोतुः तत्प्रतिपादके वचस्यनास्थादिदोषमुत्पादयन् सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमस्य निस्सारताप्रदर्शनेन तत्प्रत्यनीको भवतीति तात्पर्यम्। __ ननु ततीन्द्रियत्वेनाऽऽगमग्राह्याणां धर्माधर्माकाशानां किमर्थं सम्मतिवृत्तावमयदेवसूरिणा - 'गतिस्थित्यवगाहलक्षणं पुद्गलास्तिकायादिकार्यं विशिष्टकारणप्रभवं विशिष्टकार्यत्वात्, शाल्यङकुरादिकार्यवत्। यश्चासौ कारणविशेषः सः धर्माधर्माकाशलक्षणो यथासङ्ख्यमवसेयः (स.त.३/४५ वृत्ति) इति प्रतिपादयता हेतुग्राह्यत्वं प्रतिपादितमिति चेत नैवम, आगमग्राह्येऽप्यर्थे स्याद्वादपरिकर्मितमत्युपलब्धहेतुप्रतिपादनेऽपि क्षतिविरहात । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां 'यद्यप्यतीन्द्रियार्थे पूर्वमागमस्य प्रमाणान्तरानधिगतवस्तुप्रतिपादकत्वेनाऽहेतुवादत्वं तथाऽप्यग्रे तदुपजीव्यप्रमाणप्रवृत्ती हेतुपादत्वेऽपि न व्यवस्थाऽनुपपत्तिः, आद्यदशापेक्षयैव व्यवस्थाभिधानात्' (स्या.क. २/२३ वृ.) इति । एतेन कालिकानुयोग की निष्फलता की अनिष्ट आपत्ति आयेगी। कालिक अनुयोग का अर्थ है सूत्र के प्रत्येक पद, वाक्य, सूत्र, उद्देश, अध्ययन, श्रुतस्कंध आदि का नय, निक्षेप और प्रमाण से व्याख्यान करना। यदि सिर्फ शाब्दिक अर्थ का ही प्रतिपादन किया जाय तब तो विशिष्ट प्रज्ञाशाली शिष्य को नय भेद से शास्त्र के पद, वाक्य आदि का व्याख्यान करने का जो विधान किया गया है वह निष्फल हो जायेगा। अतः शास्त्र के एदम्पर्यार्थ का प्ररूपण भी आवश्यक है तथा उसके लिए शास्त्र के तात्पर्य को ढूंढना भी आवश्यक है-यह फलित होता है। * केवल यथाश्रुतार्थव्याख्यान में आगम की आशातना * हेतुग्राह्याणां. इति। दूसरी बात यह है कि विषय = अर्थ दो प्रकार के होते हैं हेतुवादग्राह्य और आगमवादग्राह्य । जो हेतुवाद से ग्राह्य है उसका निरूपण हेतु-तर्क-अनुमान आदि से करना चाहिए। जो केवल आगमवादग्राह्य है उसका निरूपण आगम से ही करना चाहिए। जैसे कि - आत्मा के लोकाकाशप्रदेशप्रमाण असंख्य प्रदेश हैं - यह विषय आगमवाद से ग्राह्य है। यहाँ कोई हेतु, तर्क आदि से इस विषय की सिद्धि का प्रयत्न करे तो वह संभव नहीं है और उससे श्रोता को आगमवचन के प्रति अनास्था-अनादर पैदा होता है। और जो विषय हेतुवाद से ग्राह्य-ज्ञेय है जैसे कि - 'आत्मा है' यह विषय । इसमें ज्ञानादिगुणरूप हेतु आदि के बिना ही - 'आगम में बताया है इसलिए आत्मा है' - ऐसा प्रतिपादन करने पर बुद्धिमान श्रोता को आगम के उपर अविश्वास पेदा होता है। इस तरह आगमग्राह्य को हेतुग्राह्य बताने में और हेतुग्राह्य को आगमग्राह्य बनाने में आगम की आशातना होती है। प्रस्तुत में तात्पर्य यह है कि - सत्यभाषा के लक्षण, भेद, दृष्टांत आदि को हेतु, तर्क, या अनुमान से न बता कर केवल - 'आगम में सत्यभाषा के ये दश भेद बताये गये हैं' - ऐसा व्याख्यान करने पर श्रोता के दिल में यह बात नहीं जमती है। अतः उसको आगम के प्रति सद्भाव उत्पन्न नहीं होता है। इस तरह शास्त्र के तात्पर्य का पर्यालोचन किये बिना केवल यथाश्रुत अर्थ का = शब्दार्थ मात्र का व्याख्यान करने पर हेतुवादग्राह्य पदार्थ को फलतः आगमवादग्राह्य बनाने से आगम की आशातना होती है। यदि इस आशातना से मुक्त होना हो, तो यथाश्रुत अर्थ की तरह तात्पर्यार्थ का भी व्याख्यान करना चाहिए। हेतु - तर्क आदि से शास्त्र के सही तात्पर्य
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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