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________________ १९४ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३६ ● व्यतिरेकालङ्कारविमर्शः O ननु व्यतिरेकालङ्कारादिवचनानां क्वान्तभावः ? यदि व्यवहारसत्यादौ, उपमाया अपि कथं न तत्र स इति चेत् ? न, एतद्भेदस्य तत्र प्रवेशाद्, उपमाया एव व्यतिरेकाद्युपलक्षणत्वाद्वेति दिग्| | ३६ | । उक्तौपम्यसत्या | १० | तदेवं निरूपिता सत्या भाषेत्युपसंहारमसत्याभाषानिरूपणप्रतिज्ञाञ्चाह व्यतिरेकालङ्कारादिवचनानामिति । उपमेयस्योपमानाद्गुणातिरेकित्वं व्यतिरेकः । तदुक्तं रसगङ्गाधरे 'उपमानादुपमेयस्य गुणविशेषत्वेनोत्कर्षो व्यतिरेकः । (र. गं. पृ. ४६७) अलङ्कारकौस्तुभेऽपि यत्र केनचिद्धर्मेणोपमानापेक्षयोपमेयस्य वैलक्षण्यं वर्ण्यते स व्यतिरेकः' (अलं. कौ. वृ. ४६४ ) इत्युक्तम् । तन्निदर्शनञ्च - 'अकलंक मुखं तस्या न कलङ्की विधुर्यथा' [ ] इत्यादिकम् । तथा च व्यतिरेकालङ्कारादिवचनानां कुत्राऽपि सत्यभाषाभेदे समावेशाप्रदर्शनात् सत्यभाषा एकादशधा स्यादिति भावः । आदिशब्देन प्रतीपालङ्कारादेर्ग्रहणम् । कथं नेति । व्यतिरेकालङ्कारादिवचनानां यदि व्यवहारसत्यादौ समावेशस्तदोपमावचनानामपि तत्रैवान्तर्भावः कतु युज्यते विशेषाभावात् । तथा च सत्यभाषा नवधा स्यात् इत्याशयः पूर्वपक्षस्य । तत्र = व्यवहारसत्यादौ । सः = अन्तर्भावः । समाधत्ते नेति। एतद्भेदस्य = उपमालङ्कारावान्तरभेदस्य, उपमात्वव्याप्यधर्मावच्छिन्नस्येति यावत्। तत्र = व्यवहारसत्यादौ। उपमानावृत्तिधर्मपुरस्कारेण प्रवृत्तेर्व्यतिरेकालङ्कारादिवचनानां व्यवहारसत्यादौ प्रवेश इति भावः । ननु तद्धर्मावच्छिन्नस्य यत्र समावेशस्तत्रैव तद्धर्मव्याप्यधर्मावच्छिन्नस्य समावेशो युक्तः, तस्य तद्धर्मवैशिष्ट्याऽविशेषात्, अन्यथा पृथिवीत्वव्याप्यघटत्वादिधर्मावच्छिन्नस्य द्रव्ये समावेशो न स्यादिति यदि परो ब्रूयादित्याशयं हृदि निधाय कल्पान्तरं प्रदर्शयति उपमाया एव व्यतिरेकाद्युपलक्षणत्वाद्वेति । उपमापदस्यैव स्वार्थबोधकत्वे सति व्यतिरेकादीतरार्थबोधकत्वेन व्यतिरेकादेरप्यौपम्यसत्यायामेव समावेश इति भावः । एतेन प्रदर्शितसत्यभारतीभेदेषु सत्यत्वाक्रान्तव्यतिरेकादिवचनासमावेशरूपो न्यूनतादोषः निरस्त इति प्रदर्शनाथ दिक्पदप्रयोगः कृतः । व्यतिरेक अलंकार वह कहा जाता है जिसमें उपमान से उपमेय का वैधर्म्य प्रदर्शित किया जाता है। जैसे कि तेरा मुँह तो निष्कलंक है, चन्द्र तो कलंकित है। यहाँ उपमान से उपमेय अधिक गुणवान है - यह प्रतीति होती है। मगर व्यतिरेकालंकार प्रतिपादक वचन का सत्यभाषा के किस भेद में समावेश करना यह आपने नहीं बताया है। शंका :- यदि इति । यह तो बहुत सरल बात है । व्यतिरेक अलंकार का समावेश तो व्यवहारसत्य आदि भाषा में करना चाहिए, क्योंकि लोगों की विवक्षा आदि से व्यतिरेक अलंकार की प्रवृत्ति होती है। अतः व्यतिरेक अलंकार का सत्यभाषा के किस भेद में समावेश होगा ? यह प्रश्न ही उचित नहीं है। - समाधान :- उपमाया अपि इति। आपने तीर नहीं तो तुक्का लगा तो दिया मगर यह सोचा नहीं कि इस तरह तो उपमालंकारगर्भित वचन का भी व्यवहारसत्य आदि में समावेश करने में बाधक क्या होगा ? तब तो सत्य भाषा के १० भेद न हो कर ९ भेद ही हो जायेंगे या तो उपमासत्य भाषा की तरह व्यतिरेकसत्य भाषारूप सत्यभाषा का ११वें भेद का भी प्रदर्शन करना चाहिए। अतः व्यतिरेक अलंकारादि भाषा का सत्य भाषा के किस भेद में समावेश होता है? यह बताना जरूरी है। * व्यतिरेक अलंकार का समावेश * उत्तरपक्ष :- न, इति । जैसे बच्चे लोक पत्तों का महल बनाते हैं, जो पवन की लहर से धराशयी हो जाता है, वैसे आप का यह कथन हमारे एक वचन से ही जमीनदोस्त बन जाता है। यह रहा हमारा वह वचन । सुनिये, यहाँ तात्पर्य यह है कि उपमा अलंकार का समावेश औपम्यसत्य भाषा में होने पर भी उपमा के एक भेदरूप यानी विशेष उपमास्वरूप व्यतिरेक अलंकार भाषा का समावेश तो व्यवहारसत्य भाषा में ही होता है। इसलिए व्यतिरेक अलंकारादि के असमावेश की समस्या हल हो जाती है और ११ वाँ सत्यभाषा का भेद बताने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। या तो हम यह भी कह सकते हैं कि उपमाशब्द उपलक्षण है। अर्थात् उपमाशब्द जैसे अपने वाच्यार्थ का बोध कराता है वैसे ही अपने वाच्यार्थ से इतर अर्थस्वरूप व्यतिरेक अलंकार आदि का भी बोध कराता है। मतलब यह है कि उपमावचन का जैसे उपमासत्य भाषा में समावेश होता है, ठीक वैसे ही व्यतिरेक अलंकार आदि वचनों का भी औपम्यसत्य भाषा में ही समावेश होता है, क्योकि व्यतिरेकअलंकार भी उपमाविशेष ही है यानी उपमा अलंकार
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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