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________________ १८४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५ ० तद्वस्तूपन्यासे निदर्शनान्तरनिरूपणम् ० उक्तं 'सभेदमुदाहरणदोषमुदाहरणम्।।३।। उपन्यासः = तथाविधप्रतिकूलाभिप्रायपूर्व उदाहारः। स चतुर्दा, १तद्वस्तु-२तदन्यवस्तु-३प्रतिनिभ-४हेतूपन्यासभेदात् । तत्र वाद्युक्तमेव वस्त्वादाय उपन्यासस्तद्वस्तूपन्यासः । तत्रोदाहरणम् - एकः कार्पटिको बहून् देशान् भ्रान्त्वा समागतः, अन्यैः कार्पटिकैराश्चर्यं पृष्ट उक्तवान् 'समुद्रतीरे एकत्र मया महान् महीरुहो दृष्टः, तस्यैका शाखा समुद्रे प्रतिष्ठिताऽन्या च स्थले ततः समुद्रे पतितानि फलानि जलचरा भवन्ति, स्थले पतितानि त्वात् घटस्य तत्साधाच्छब्दस्याऽनित्यत्वमेवाऽनभिमतं सिध्यतीति साध्यानुपयोगीदमुदाहरणम । तथा सन्तानोच्छेदो मोक्षो दीपस्येवेत्यभ्युपगमे दीपदृष्टान्तादनादिमतोऽपि सन्तानस्याऽवस्तुता प्रतीयते। तथाहि - दीपस्यात्मनश्च सन्तानोच्छेद उत्तरक्षणाऽजनकत्वात। तत्त्वे चार्थक्रियाकारित्वलक्षणसत्त्वाभावादन्त्यक्षणस्याऽवस्तुत्वम, अवस्तुत्वजनकत्वात् पूर्वक्षणस्यापि, तत एव पूर्वतरस्यापीत्येवं समस्तस्याऽपि सन्तानस्याऽवस्तुत्वम् । अथ क्षणान्तरानारम्भेऽपि स्वगोचरज्ञानजननलक्षणार्थक्रियाकारित्वादन्त्यक्षणो वस्तु भविष्यति, नैवम्, एवं हि भूतभाविपर्यायपरम्पराऽपि योगिज्ञानं स्वविषयमुत्पादयतीति वस्तुत्वं स्वीकुर्यात्, तन्न क्षणान्तरानारम्भे वस्तुत्वमित्यतो भवति दीपज्ञातं स्वमतदूषणावहमिति । अथवा अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति वक्तव्ये सम्भ्रमादनित्यो घटः कृतकत्वाच्छब्दवदिति वदतो दुरुपनीतं विपर्ययोपनयनादिति" (स्था. ४/३/३३८ वृ.) एवमुक्तमिति ध्येयम्। ___ उपन्यासचतुर्थभेदमाह - उपन्यास इति। व्यक्तप्रायम् । तूष्णीम्भूत इति अत्र वाद्युक्तमेव तरुफलपतनवस्तु गृहीत्वा तदुक्तविघटनात्तद्वस्तुत्वं ज्ञेयम् । अस्योदाहरणत्वं समर्थयता स्थानाङ्गवृत्तिकारेण कथितम् - "ज्ञातत्वं चास्य ज्ञातनिमित्तत्वात् अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेतत्। तथाहि एवं प्रयोगोऽस्य, जल-स्थल-पतितपत्राणि न जलचरादिसत्त्वाः सम्भवन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत्, तन्मध्यपतितपत्राणां हि जल-स्थलपतितपत्रजलचरत्वादिप्राप्तिवदुभयरूपप्रसङ्गः, न चोभयरूपाः सत्वा अभ्युपगता इति।" (स्था. ४/३/३३८) इदं चोपलक्षणं 'गौस्त्वमि'त्युक्तस्य-'किं गवि गोत्वमुतागवि गोत्वम्, चेद्गवि गोत्वमनर्थकमेतत् । भवदभिलषितमगोरपि गोत्वं, भवति भवत्यपि सम्प्रति गोत्वम्' ।। लेता हूँ। 'अरे! तुम जुगारी हो'? 'हाँ, मैं दासीपुत्र हूँ इसलिए जुआ खेलता हूँ'| - इस दृष्टान्त में बौद्ध भिक्षु प्रत्येक प्रश्न का उपसंहार सदोष करता है। इस लौकिक दृष्टांत को जान कर जिस तरह बोलने से जिनशासन की हीलना हो और जिसका उपसंहार करने पर वाद में लोग जैन साधु का उपहास करे वैसा नहीं बोलना चाहिए - यह लोकोत्तर चरण - करणानुयोगाधिकृत दुरुपनीत तद्दोष उदाहरण है। द्रव्यानुयोग के अधिकार में भी - जीव द्रव्य विषयक वाद में ऐसा कथन प्रतिपादन करना चाहिए कि जिससे परवादी अपने को हरा न सके। अर्थात् जिस प्रकार के वचन से प्रतिवादी के उपर विजय प्राप्त हो ऐसा बोलना चाहिए | इस तरह तद्दोष दुरुपनीत उदाहरण का विवरण पूर्ण हुआ। इसके साथ-साथ ही उपमान के तृतीय भेद तद्दोष उदाहरण = दुष्ट उदाहरण का विवेचन भी पूर्ण हुआ। * उपन्यास उदाहरण ४ * .उप. इति । अब व्याख्याकार श्रीमद् उपमान के चतुर्थ भेद उपन्यास का निरूपण करते हैं। उपन्यास का अर्थ है - तथाविध प्रतिकूल अभिप्राय पूर्वक बताये जानेवाला उदाहरण । उपन्यास उदाहरण के चार भेद हैं। (१) तद् वस्तु उपन्यास, (२) तदन्य वस्तु उपन्यास, (३) प्रतिनिभ उपन्यास, (४) हेतु उपन्यास । तद्वस्तु उपन्यास उसे कहा जाता है जिस उदाहरण में वादी जिस चीज का कथन करता है उसी वस्तु का प्रतिवादी के द्वारा वादी के अभिप्राय से प्रतिकूल अभिप्राय पूर्वक उपन्यास हो। तद्वस्तु उपन्यास के लौकिक उदाहरण को स्वयं विवरणकार ही संक्षेप से बता रहे हैं कि - एक संन्यासी अनेक देश में घूम कर एक गाँव में आता है तब अन्य इकट्ठे हुए संन्यासी नये संन्यासी से पूछते हैं कि - 'भाग्यशाली! आपने अनेक देश में घूमते घूमते कुछ आश्चर्य देखा है?' तब यह नया संन्यासी कहता है कि - "समुद्र के तट पर मैंने एक बड़े वृक्ष को देखा था जिसकी एक शाखा समुद्र में प्रतिष्ठित थी और दूसरी शाखा स्थल = भूमि में। विशेषता यह थी कि - उस वृक्ष की शाखा से जो फल समुद्र में गिरते थे वे जलचर प्राणी १ मुद्रितप्रतौ च - 'सभेदमुदाहरणम्' इति पाठः।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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