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________________ १८२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३५ ० शौचनिरुक्तिः ० चरणकरणानुयोगे नैवं ब्रूयात्, यदुत "लोइयधम्मातो वि हु जे पब्भट्ठा नराधमा तेउ । कह दव्वसोयरहिया, धम्मस्साराहगा होंति ।। त्ति ( ) द्रव्यानुयोगेऽपि नैवं प्रयुञ्जीत एकेन्द्रिया जीवा व्यक्तोच्छ्वासादिलिङ्गत्वात्, व्यतिरेके घटवदिति, अत्र च न च तथैतेष्वसद्भावस्तस्माज्जीवा एवैत इति । आत्मनोऽपि तद्रूपापत्त्याऽऽत्मोपन्यासत्वम् । उदाहरणदोषता चात्मोपघातजनकत्वेन तच्चासाधारण्यादित्यवसीयते | ३ | I स्ववचनदोषात्। दव्वसोयरहिया । अत्रोदाहरणदोषता च यतीनां द्रव्यशौचरहितत्वेन श्रोतुस्तेषु धर्माराधकत्वाभावबुद्धिजनकत्वात् । वस्तुतो द्रव्यशौचं शौचमेव न भवति कामांगत्वेन भावशौचाननुगुणत्वात् । भावशौचं तु दोषपरिहारादिकमेव । तदुक्त भविष्यपुराणे 'अभक्ष्यपरिहारश्च संसर्गश्चाप्यनिन्दितैः । स्वधर्मे च व्यवस्थानं शौचमित्यभिधीयते ।।' (भ. पु. १/२/१६०) तदुक्तं मैत्रेय्युपनिषदि 'शौचमिन्द्रियनिग्रहः' (मै.उ.२/२) इति । मनसो मलिनत्वे गङ्गास्नानादीनामपि शौचानापादकत्वं का पुनः सामान्यजलस्नानादीनां कथा ? तदुक्तं जाबालदर्शनोपनिषदि 'चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानैर्न शुध्यति । शतशोऽपि जलैर्धीतं सुराभाण्डमिवाशुचि ।। (जा. द. ५/५४) अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते विस्तरभयात् । व्यतिरेक इति । ये जीवा न भवन्ति न तेषु व्यक्तोच्छवासादिलिङ्गसद्भावो यथा घटादिषु । एतेषु = एकेन्द्रियेषु । आत्मनः = वादिनः, अपिशब्दोऽवधारणार्थः । तद्रूपापत्त्या = पराजयाऽऽपत्त्येति । अयं भाव एकेन्द्रियेषु व्यक्तोच्छ्वासादिजीवलिङ्गसद्भावो वादिनः स्याद्वादिनोऽपि नाऽभिमतः । अतो नास्तिकादिप्रतिवादिनं प्रत्येकेन्द्रियेषु जीवत्वसाधनार्थं तत्र व्यक्तोच्छ्वासादिलिङ्गसद्भावोपगमेऽपसिद्धान्तनिग्रहस्थानप्राप्तिप्रसङ्गः । आत्मोपघातजनकत्वेन = प्रतिवादिपराजयोद्देशप्रयुक्तहेतुनैव वादिपराजयापत्तिरूपस्याऽऽत्मोपघातस्य जनकत्वेन । तच्च = आत्मोपघातजनकत्वञ्च, असाधारण्यात् = तादृशहेतोः सर्वेषु जीवेषु साधारण्याभावात्, यद्वैकेन्द्रिय-साधारण्याभावात्, अनेन स्वरूपासिद्धिः प्रदर्शिता । दशवैकालिकवृत्तिटिप्पणे तु तद्रूपापत्त्या एकेन्द्रियत्वापत्त्ये 'ति लिखितम् । अत्र चाऽगस्त्यसिंहसूरिणा चूर्णो "जहा कोति भणेज्ज एगिंदिया जीवा, जम्हा तेसिं फुडो उस्सास - नीसासो (? ण) दीसति दितो घडो, घडस्स निज्जीवस्स उस्सासनिस्सासो नत्थि, तहा एगिंदियाणं उस्सास - निस्सासो नत्थि तम्हा । एवमाइ विरुद्धं ण भणितव्वं ।" इत्युक्तं तत्सङ्गततरं भातीति विभावनीयम् । = - अत्र स्थानाङ्गवृत्तौ तु - 'यथा सर्वे सत्त्वा न हन्तव्या' इत्यस्य पक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह - अन्यधर्मस्थिता हन्तव्या या अनजान में हो जाय इसका प्रतिपादक उदाहरण । दुष्ट उदाहरण में इसका समावेश इसलिए है कि प्रस्तुत प्रसंग में वैसा प्रतिपादन करने से अपने सिर पर ही दोष आता है। यहाँ लौकिक आत्मोपन्यास में पिंगल नामक शिल्पी का उदाहरण है। संक्षेप में यह दृष्टांत इस तरह है कि तालाब बार बार टूट जाने से राजा जब पिंगल नाम के शिल्पी से तालाब को अखंड रखने का उपाय पूछता है तब वह कहता है कि जिसके मस्तक के, दाढी के, मूँछो के बाल और आँख आदि पीले हो, उसका बलिदान दिया जाय तब तालाब अखंडित रहेगा। नगर में अन्य वैसा पुरुष मिलना मुश्किल था और स्वयं पिंगल नामक शिल्पी पीले बाल आदि लक्षण से युक्त था। अतः प्रधान ने उसीका बलिदान दे दिया। इस तरह पिंगल शिल्पी ने अपने पाँव पर अपने आप कुल्हाडी मारने का प्रयास किया। यह लौकिक दृष्टांत हुआ। इस तरह चरण-करणानुयोग में अधिकृत लोकोत्तर आत्मोपन्यास में ऐसा कथन कि 'ये लोग द्रव्यशौच = स्नानादि से रहित होने से लौकिक धर्म से भी भ्रष्ट हैं वे नराधम क्या धर्म के आराधक हो सकते हैं?' नहीं करना चाहिए, क्योंकि कामवासना के अंगभूत स्नानादि द्रव्यशौच के त्यागी एवं भावशौचवाले मुनिवर्ग के सिर पर ही धर्म की अनाराधकता का - नराधमत्व का दोष आयेगा । अतः जिसके बोलने से अपने उपर दोष आता हो वैसा वाक्यप्रयोग यति के लिए निषिद्ध है । - * द्रव्यानुयोग में आत्मोपन्यास * द्रव्यानुयोग. इति । अब विवरणकार द्रव्यानुयोग में अधिकृत आत्मोपन्यास तद्दोष का व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि - जीवादि द्रव्यों के संबंध में ऐसा प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो अपना ही घातक हो। जैसे- " एकेन्द्रिय जीव हैं क्योंकि वे व्यक्त श्वासोच्छ्वास १ लौकिकधर्मादितोऽपि खलु ये प्रभ्रष्टा नराधमास्ते तु । कथं द्रव्यशौचरहिता धर्मस्याऽऽराधका भवन्ति ।। इति
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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