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________________ * आत्मसिद्धिः * १७३ द्रव्यानुयोगमधिकृत्य तु यदि नास्तिको वदेद्- 'भावा एव न सन्ति, आत्मा तु सुतरां नास्तीति तदा तमेवं निवारयेत्- 'किमेतत्तव वचनमस्ति नास्ति वा? आद्ये प्रतिज्ञाहानिः द्वितीये च निषेधकस्यैवाऽसत्त्वे किं केन निषेधनीयं? किं नास्त्यात्मेति? किञ्च "नास्ति आत्मा" इति+ प्रतिषेधको ध्वनिः शब्दः+, शब्दश्च विवक्षापूर्वक इति नाजीवोद्भव इति प्रतिषेधध्वनेरेव सिद्ध आत्मेति ।४ । दर्शितं सभेदमुदाहरणम्।।१।। तद्देशश्च निगमनोपयोगिदेशघटितो दृष्टान्तः। स चतुर्दा १ अनुशास्तिः, २ उपालम्भः, ३ पृच्छा, ४ निश्रावचनं चेति। तत्र सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहणमनुशास्तिः। अत्र च सुभद्राकथानकं वक्तव्यम्। तत्राऽपि तस्याः शीलगुणदृढत्वपरीक्षोत्तरं लोकप्रशंसा, एकदेशस्यैव प्रकृतोपसंहारोपयोगित्वादुदाहरणैकदेशता। नास्तिकः = शून्यवादी सौगतो यद्वा तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकोऽत्र बोध्यः । प्रतिज्ञाहानिरिति । प्रतिज्ञातार्थपरित्याग इति। भावास्तित्वव्याप्यस्य वचनास्तित्वस्य स्वीकारेण प्रतिज्ञातस्य भावासत्त्वस्य परित्यागात् । द्वितीये = निषेधकवचनाऽभावविकल्पे कार्यात् कारणं साधयति-किञ्चेति। शब्दश्चेति विशिष्टशब्दश्चेत्यर्थः । अत्र प्रयोगा एवम्आत्माऽस्ति प्रतिषेधध्वन्यन्यथानुपपत्तेः। प्रतिषेधध्वनिः विवक्षाजन्यः विशिष्टशब्दत्वात। विवक्षा हि धर्मो धर्मस्य चानुरूपेण धर्मिणा भवितव्यमित्यत आत्मसिद्धिः । न च प्रथमानुमाने हेतोय॑धिकरणत्वादगमकत्विमिति वाच्यम् व्यधिकरणस्याऽपि गमकत्वस्य रत्नाकर-कल्पलता-हेतुविडम्बनस्थलादौ प्रदर्शितत्वात्। अस्तु वा विवादाध्यासित आत्मा सन् प्रतिषेधध्वनिजनकविवक्षाश्रयत्वादिति प्रयोगः । तेन न स्वरूपासिद्धिर्न वाश्रयासिद्धिरिति। किञ्चाऽभावस्य सत्प्रतियोगिकत्वनियमादभावज्ञानस्य स्वप्रतियोगिज्ञानसम्पाद्यत्वनियमाच्चाऽन्यत्र प्रतियोगिनः सत्ता सिध्यति। तदुक्तं आत्मतत्त्वविवेकवृत्तौ भगीरथठक्कुरेण "प्रतियोगिव्यवहारनिरूपणं विना निषेधव्यवहारोऽपि न स्यादिति।" उदाहरणमिति । उदाहरणत्वं चैतद्भेदानां सर्वेषां देशोपनयाभावात् । तदुक्तं स्थानाङ्गवृत्तौ "एतद्देदानां देशेन दोषवत्तया चोपनयाभावादिति।" तद्देश इति। तस्य = उदाहरणार्थस्य देश इति। निगमनेति। विवक्षितार्थे प्रतिकूलप्रमाणाभावसूचकोपसंहारो निगमनम। अयं भावः यत्रेष्टेन दृष्टान्तार्थदेशेनैव दान्तिकार्थस्योपसंहारः क्रियते स दृष्टान्तः तद्देश इति। अनुवचन सत् है कि असत्' ? यदि तुम्हारा वचन सत् है पारमार्थिक है तब 'कुछ भी पारमार्थिक है नहीं' ऐसी तुम्हारी प्रतिज्ञा का गा, क्योंकि 'कुछ भी पारमार्थिक नहीं है' ऐसी प्रतिज्ञा कर के 'मेरा वचन पारमार्थिक है' ऐसा तुम स्वीकार करते हो। यदि तुम ऐसा कहो कि - "नहीं, मेरा वचन भी सत् नहीं है" तब तो आत्मा का निषेधक वचन ही नहीं है तब कौन, किसका, कैसे, कहाँ, और किसके लिए निषेध करेगा कि 'आत्मा नहीं है'? न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसूरी! ___ * निषेध वचन से आत्मसिद्धि * किञ्च, इति । इसके अतिरिक्त बात यह है कि - 'आत्मा नहीं है' - यह प्रतिषेधध्वनि ही आत्मा का साधक है, क्योंकि आत्मा का निषेध करनेवाला ध्वनि शब्दरूप है, जो विवक्षा से उत्पन्न होता है। आशय यह है कि जब बोलने की इच्छा होती है तब मनुष्य बोलता है। बिना विवक्षा के कोई नहीं बोलता है। अतः बोलने की इच्छा जड वस्तु का धर्म नहीं है किन्तु जीव का ही धर्म है, क्योंकि जड घट-पट आदि को इच्छा ही पैदा नहीं होती है। अतः 'आत्मा नहीं है' यह निषेधवचन ही आत्मा की सिद्धि करता है, क्योंकि आत्मा के बिना विवक्षा=बोलने की इच्छा ही असंभव है और उसके अभाव में निषेधक वचन की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है। इस तरह उदाहरण के अंतिम भेद प्रत्युत्पन्नविन्यास का निरूपण होने से उदाहरण नामक उपमान के प्रथम भेद का निरूपण समाप्त हुआ। __* तद्देश उपमान -२ * तद्देश. इति । उपमान का द्वितीय भेद है तद्देश, जिसका अर्थ है - उपसंहार उपयोगी अमुक भाग से घटित द्रष्टांत । अर्थात् जहाँ संपूर्ण कथानक का कथन अपनी इष्ट वस्तु के प्रतिपादन के लिए आवश्यक न हो मगर उदाहरण का अमुक भाग ही १++ चिह्नद्वयान्तर्गतः पाठः कप्रतौ नास्ति ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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