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________________ १६२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. ३४ स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितं ● पर्यायत्वनिर्वचनम् ० 'चरियं च कप्पियं तह, उवमाणं दुविहमेत्थ णिद्दिवं । कप्पियमवि रूवयमिव भावाबाहेण ण णिरत्थं । । ३४ ।। चरितं च = पारमार्थिकं च, यथा महारम्भो ब्रह्मदत्तादिवद्दुःखं भजत इति । तथा कल्पितं यथाऽनित्यतायां पिप्पलपत्रोपमानम् । उक्तं च 'जह तुब्भे तह अम्हे तुब्भे वि य होहिधा जधा अम्हे । मानत्वं तथोपमानुयोगित्वमुपमेयत्वम् । अत उपमेयनिरूपणमप्यावश्यकं यद्वोपमाननिरूपणमपि न कर्तव्यम्, अविशेषादिति चेत् ? न, उपमेयस्य प्रत्यक्षत्वेन प्राप्तत्वात्, शास्त्रस्य चाप्राप्तप्रतिपादकत्वेनोपमानप्रतिपादनस्याऽऽवश्यकत्वादिति दिग्। पर्याया इति । केचित् - समानार्थबोधकशब्दत्वं पर्यायत्वमित्याहुः । नानाशब्दैकार्थबोधकत्वमित्यपरे । तत्समानार्थकपदान्तरेण तदर्थकथनमित्यन्ये । आत्मतत्त्वविवेकवृत्तिकृतस्तु 'भिन्नयोरभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तकत्वं पर्यायत्वमिति प्राहुः । भगवानिति ज्ञानैश्वर्यादिगुणसम्पन्न इत्यर्थः । उपमानज्ञातादीनां पर्यायत्वे श्रीदशवैकालिकनिर्युक्तिकृत्सम्मतिं प्रदर्शयति-नायं आहरणं इति । अत्रागस्त्यसिंहसूरीकृतचूर्णौ - "णज्जंति अणेण अत्था णातं १, आहरति तमत्थे विण्णाणमिति आहरणं २, दिट्ठोऽस्स अंतो दिवंतो ३, उवेच्च माणं उवमा तब्भावो ओवम्मं ४, अहिकं दरिसणं निदरिसणं ५ एगट्ठिता" (दश. वै. नि. श्लो. २४ अ. चू.) इत्येवं व्याख्यातम् । = हारिभद्रवृत्तौ तु - "ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्, अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः तथोदाह्रियते = प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युदाहरणम्, दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, अतीन्द्रियप्रमाणाद्दृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः। उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् । तथा निदर्शनं निश्चयेन दर्श्यतेऽनेन दान्तिक एवार्थ इति निदर्शनम् 'एगद्वं' ति इदमेकार्थम् = एकार्थिकजातम् (दश. नि. श्लो. ५२ हा वृ.) इत्येवं व्याख्यातम् । ब्रह्मदत्तादिवदिति । ब्रह्मदत्तकथानकं विस्तरतः त्रिषष्टिशलाकापुरुषोत्तराध्ययनसूत्रादितो ज्ञेयम् । अत्र महारम्भे दुःखजनकत्वप्रतिपादनमभीप्सितम् । हारिभद्रवृत्तौ तु निदाने दुःखजनकत्वप्रतिपादनमत्रैवोदाहरणे, तदुक्तं तत्र - "दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य ।" (दश. हा. वृ. पृ. २३) 'अप्पाहेति' शिक्षयतीत्यर्थः शेषमतिरोहितार्थम् । विस्तरतस्तूत्तराध्ययननिर्युक्तिबृहद्वृत्तितोऽवसेयम् । = गाथार्थ :- यहाँ चरित और कल्पित इस तरह उपमान के दो भेद बताये गये हैं। कल्पित उपमान भी भाव अबाधित होने से रूपक अलंकार की तरह निरर्थक नहीं है । ३४ । * उपमान के दो भेव * विवरणार्थ :- चरित उदाहरण का अर्थ है पारमार्थिक उदाहरण। जैसे कि जो महारंभ-समारंभ करता है वह ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि की तरह दुःख को पाता है। महारंभ में आसक्त ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, जिसने पूर्वभव में संयम के फलस्वरूप में चक्रवर्ती बनने का निदान किया था, उसी भाव में अंधा हुआ था और चक्रवर्तीपने का आरंभ तो आखिर तक नहीं ही छोडा था। अधिक में समस्त ब्राह्मणवर्ग की आँखे खींचवाने का सक्रिय यत्न किया था। आरंभ-समारंभ की बहुत खुशी भी मनाई थी। बाद में सातवीं नरक में गया था। यह घटना घटी हुई है। अतः यह उदाहरण चरित= पारमार्थिक कहा जाता है। कल्पित. इति । उदाहरण = उपमान का दूसरा भेद है कल्पित उपमान यानी वह उदाहरण जो वास्तविक न हो मगर अपनी बुद्धि की कल्पनारूप शिल्पी से निर्मित हो जैसे कि अनित्यता के द्रष्टांत में पीपल के पत्तों का उदाहरण । वह उदाहरण उत्तराध्ययननिर्युक्ति में इस प्रकार बताया गया है कि- 'पीपल के पौधे से जीर्ण-शीर्ण पत्ते गिरते हैं उनको देख कर छोटे छोटे कोमल पत्ते हंसते हैं तब जीर्ण-शीर्ण पत्ते उनसे कहते हैं कि 'आज तुम्हारी जैसी अभ्युदयवाली उन्नत स्थिति है वैसी ही हमारी स्थिति पूर्व में थी और आज हमारी जो स्थिति है वैसी ही विनाश- अधोगति की स्थिति तुम्हारी भी आयेगी'। यहाँ गुर्जरभाषा की लोकपंक्ति याद आये बिना नहीं रहती है। वह यह है कि- 'पिप्पल पान खरतां हसती कुंपलीयां, मुज विती तुज वितसे धीरी बापुलीयां'। इस तरह अनित्यता के सम्बन्ध में यह काल्पनिक उदाहरण है। ४ चरितं च कल्पितं तथोपमानं द्विविधमत्र निर्दिष्टम् । कल्पितमपि रूपकमिव भावाबाधेन न निरर्थम् । । ३४ । । १ यथा यूयं तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयम् । शिक्षयति पतत्पाण्डुपत्रं किशलयेभ्यः । ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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