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________________ १६० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३३ ० शिरोमणिमतनिरास: ० स्यादिति ध्येयम् । उदाहरणमाह-छत्राद्यभावेऽपि यथा छत्री कुण्डली दण्डीति ।।३३।। इन्प्रत्ययस्य संसर्गवाचकत्वेन छत्राभावेऽप्यर्थान्तररूपसम्बन्धसत्त्वाभ्युपगमे च छत्राभावदशायामपि 'इदानीं छत्री'ति शब्दप्रयोगात्मको व्यवहारः स्यात् । न च यस्मिन्पूर्वमनेकशः छत्रयोगे जाते छत्राभावदशायां 'अयमिदानी छत्री'ति व्यवहारो जायते, किन्तु 'अयं छत्री'त्येव । तथा प्रतियोगिसम्बन्धसत्त्वाभ्युपगमे तदभावप्रतिपादक 'इदानीं न छत्री'ति व्यवहारो न स्यात्। यदि स्यात्तदाऽपि मृषा स्यात्, अतिरिक्तसम्बन्धसत्त्वदशायामपि तदभाववत्तावगाहिशाब्दबोधजनकत्वात्। एतेन-'रूपसमवायसत्त्वेऽपि वायौ स्वभावतो रूपाभावादेव नीरूपत्वमिति गङ्गेशेन यदुक्तं तन्निरस्तम् प्रतियोगिसम्बन्धसत्त्वे तत्सम्बन्धावच्छिन्नाभावायोगात्, अन्यथा घटसंयोगवति भूतले संयोगसम्बन्धावच्छिन्नघटाभावापत्तेः। किञ्च वाय्वादेर्नीरूपत्वस्य रूपीयतद्धर्मताख्यसम्बन्धाभावादेव पक्षधरमित्रैरुपपादितत्वात्, तद्धर्मतायाश्च तद्रूपाद्यनतिरिक्तत्वात्। न तत्र रूपसमवायस्य प्रामाणिकत्वम्, तदुक्तं चिन्तामण्यालोके मिश्रः "अविद्यमानसंसर्गावच्छिन्न एव संसर्गाभाव इति रूपाभावोऽप्येवम्, न तु समवायसम्बन्धावच्छिन्नः किन्तु तद्धर्मतालक्षणस्वरूपसम्बन्धावच्छिन्न" इति। अधिकं तु न्यायलोकेऽनुसन्धेयम्। एतेन यदपि शिरोमणिना "यद्यपि समवायो नित्यस्तथापि पिण्डानुत्पत्तिकाले पिण्डासत्त्वप्रयुक्तमेव तदसम्बद्धत्वमिति आत्मतत्त्वविवेकदीधितावुक्तं तत्प्रत्युक्तम्, सम्बद्धत्वाऽसम्बद्धत्वाभ्यां समवायस्य नित्यत्वहानिप्रसङ्गाच्चेत्यादिसूचनार्थं ध्येयमित्युक्तम्। छत्राद्यभावेऽपि यथा छत्रीति। छत्रञ्चाऽत्रोपलक्षणम, अतीतविषयस्य ज्ञाने उपलक्षणत्वेनैव व्यवहारात । अत्र भूयशोऽतीतकालीनच्छत्रसंसर्गवति तादृशोपचरितसम्बन्धेन छत्रमन्वीयते, उपलक्ष्यद्वारोपचरितसम्बन्धेनोपलक्षणस्य ज्ञानविषयत्वानुभवात्। इत्थमेवोपलक्षणवचनस्य योगसत्यत्वमुपपादितं विशेषणोपलक्षणप्रकरणे। प्रतियोगिसम्बन्धमात्रविवक्षणात् इन्प्रत्ययोपादानम्, वतोः प्रशंसावाचित्वात् । अत एव 'रूपवान् = प्रशस्तरूपोपेत' इति धर्मरत्नप्रकरणवृत्तिकारवचनमपि सङ्गच्छते। स्थानाङ्गवृत्तौ तु "योगतः = सम्बन्धतः सत्यं योगसत्यं यथा दण्डयोगाद् दण्डः, छत्रयोगाच्छत्र एवोच्यते" (स्था.) इति अभयदेवसूरिणा व्याख्यातमिति ध्येयम्। चैत्रादौ छत्रादिसत्त्वदशायां तु 'अयं छत्री'त्यादिकं वचनं तु भावसत्यायामन्तर्भवति पारमार्थिकच्छत्रादिसम्बन्धछत्री छत्रसम्बन्धवाला है'- इस प्रकार का व्यवहार होने लगेगा, क्योंकि 'छत्र न होने पर भी छत्र का सम्बन्ध तो रहता है'- यह आपका मन्तव्य है। मगर वास्तव में 'अयं इदानी छत्री' ऐसा प्रयोग नहीं होता है, किन्तु 'छत्री चैत्रः' ऐसा ही प्रयोग होता है। ___ दूसरी बात यह है कि- यदि विशेषण के अभाव में भी अतिरिक्त सम्बन्ध का स्वीकार किया जाय तब तो 'इदानीं न छत्री' अर्थात् 'यह अभी वर्तमान काल में छत्री छत्रसम्बन्धवाला नहीं है' इस प्रकार का शाब्द व्यवहार न हो सकेगा, क्योंकि जब तादृश सम्बन्ध विद्यमान हो तब तादृश सम्बन्ध के अभाव के बोधक वाक्य का प्रयोग समीचीन नहीं हो सकता मगर वस्तुस्थिति को लक्ष्य में ली जाय तब तो छत्रादि विशेषण के अभाव काल में 'यह वर्तमानकाल में छत्र सम्बन्धवाला नहीं है'- ऐसा शाब्द व्यवहार लोक में दिखाई देता है, जिसका समर्थन आपके अभिप्राय के अनुसार कथमपि संभव नहीं है। अतः सम्बन्ध धर्म-धर्मी से अतिरिक्त नहीं है, किन्तु धर्म-धर्मी उभयस्वरूप ही है-यही मानना उचित है। इस विषय में आगे भी विचार किया जा सकता है-यह बताने के लिए 'ध्येयं' पद का प्रयोग हुआ है। उदाहरण. इति। अब विवरणकार योगसत्य भाषा के लक्षण के अनुसार तीन उदाहरण बताते हैं कि छत्रादि विशेषण के अभाव में भी छत्री, कुंडली, दंडी इत्यादि शब्दप्रयोग योगसत्य भाषा के द्रष्टांत हैं। आशय यह है कि सांप्रतकाल में छत्रादि न होने पर भी अतीतकालीन छत्रादिसम्बन्ध के निमित्त से चैत्रादि में छत्री इत्यादि पद की लक्षणा होती है। उन पदों से घटित भाषा जैसे कि'अयं छत्री गच्छति' इत्यादि भाषा योगसत्य भाषा है।।३३।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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