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________________ * 'नदी पीयते' वाक्यविमर्शः * उक्ता प्रतीत्यसत्या । अथ व्यवहारसत्यामाह १४३ 'ववहारो हु विवक्खा लोगाणं जा पउज्जए तीए । पिज्जइ नई य डज्झइ गिरित्ति ववहारसच्चा सा । । ३१ ।। व्यवहारो हि लोकानां विवक्षा वक्तुमिच्छा विवक्षा सा चाऽत्र नद्यादिपदं नदीगतनीरादिकं बोधयत्विति प्रयोक्त्रिच्छा । ततो ननु व्यङ्ग्यत्वनये चैत्रीयापेक्षाबुद्धिव्यक्तद्वित्वे मैत्रस्य प्रत्यक्षत्वं कथं न स्यात् ? न हि शरावगन्धः किञ्चित् प्रति व्यक्तोऽन्यं प्रत्यनभिव्यक्त इति चेत् ? उच्यते, द्विविधा हि व्यङ्ग्यभावाः सप्रतियोगिकव्यङ्ग्या निष्प्रतियोगिकव्यङ्ग्याश्च। तत्र ये सप्रतियोगिकव्यङ्ग्यास्ते केवलं स्वव्यञ्जकाश्रये स्वविषयकज्ञानं जनयन्ति, यथा पितृविषयक - ज्ञानरूपसप्रतियोगिकव्यञ्जकव्यङ्ग्यं पुत्रत्वम् । ये च भावा निष्प्रतियोगिकव्यञ्जकव्यङ्ग्यास्ते स्वव्यञ्जकानाश्रये स्वव्यञ्जकाश्रये च स्वविषयकज्ञानं जनयन्ति यथा प्रकाशाभिव्यक्तघटादयः कूपखननाभिव्यक्तजलप्रभृतयश्च । द्वित्वादिकं चापेक्षाबुद्धिरूपसप्रतियोगिकव्यञ्जकव्यङ्ग्यमतो नाऽपेक्षाबुद्ध्यनाश्रये मैत्रे तज्ज्ञानाऽऽपत्तिरिति मदेकपरिशीलितः पन्था विभाव्यताम् । एवञ्च स्वसामग्रीसञ्जातद्वित्वाद्यनन्तपर्यायोपेतद्रव्य एवापेक्षाबुद्धिहेतोर्द्वित्वादिसप्रतियोगिकभावे यथाक्षयोपशमं द्वित्वादिप्रकारकं ज्ञानं जायत इत्यपेक्षाबुद्धिव्यङ्ग्यत्वमेव द्वित्वादेर्युक्तमिति सिद्धम् । अन्यत्र = नयोपदेशादौ ।। ३० ।। व्यवहारः = व्यवहारपदप्रतिपाद्यः । सा = लोकविवक्षा । अत्र = 'नदी पीयत' इत्यादिव्यवहारसत्यभाषास्थले । नद्यादिपदान्नदीगतनीरादिप्रतिपत्तेरिति । अत्र चाऽयं प्रघट्टकार्थः 'नदी पीयत' इत्यदौ नदीपदस्य शक्यार्थेऽष्टसहस्रधनुरन्यूनव्याप्त-कुलद्वयगतनीरप्रवाहे धात्वर्थस्य गलबिलाधःसंयोगस्याऽन्वयस्यानुपपत्तेस्तात्पर्यानुपपत्तेर्वा प्रतिसन्धानान्नदीपदाल्लक्षणया नदीगतनीरप्रतिपत्तिर्जायते । अत्र सङ्क्षेपतः शाब्दबोधाकारस्तु 'पराश्रितवर्त्तमानकालिक कृतिजन्यव्यापारजन्यगलबिलाधःसंयोगात्मकफलशालि नदीगतनीरमित्येवं द्रष्टव्यः । शाब्दबोधे तात्पर्यज्ञानस्य कारणत्वात् तादृशशाब्दबोधान्यथानुपपत्त्या " नद्यादिपदं नदीगतनीरादिपरं" इत्याकारकतात्पर्यज्ञानमनुमीयते । तथा च तादृशशाब्दबोधस्य जनकताया विषयविधयाऽवच्छेदिका 'नद्यादिपदं नदीगतनीरादिकं बोधयतु' इत्याकारिका विवक्षा सिध्यतीति भावः । अत्र पावनत्वादिज्ञानं लक्षणाप्रयोजनम् । ततः पावनत्व-प्रसन्नत्व-निर्मलत्वादिकं नीरे प्रतीयते, अन्यथा 'नदी पीयत' इतिप्रयोगस्य 'नदीगतनीरं पीयत' इति प्रयोगादविशेषापत्तेरिति विभावनीयम् । गाथार्थ :- लोगों की विवक्षा ही व्यवहार है। उस विवक्षा से जिस भाषा का प्रयोग होता है वह भाषा व्यवहारसत्य है । जैसे कि नदी पी जाती है, पर्वत जलता है । ३१ । * व्यवहारसत्य भाषा ७ * विवरणार्थ :- व्यवहारसत्य भाषा का अर्थ है व्यवहार से सत्य भाषा । व्यवहारशब्द का अर्थ है लोगों की विवक्षा । विवक्षा का अर्थ है बोलने की इच्छा। लोगों की विवक्षा से जो शब्दप्रयोग होता है उसे व्यवहारसत्यभाषा कहते हैं। जैसे कि लोग 'नदी पीयते' = 'नदी पी जाती है' ऐसा शब्द प्रयोग करते हैं। यहाँ वक्ता की इच्छा यह होती है कि "नदीपद से श्रोता को नदीगत जल का बोध हो" । यहाँ यह शंका करने की आवश्यकता नहीं है- 'लोगों की विवक्षा आपने बताई वैसी ही है, अन्य नहीं, इस का नियामक कौन होगा?' - क्योंकि वक्ता की इच्छा क्या है? उसका निर्णय हम वक्ता के वचन से लोगों को होनेवाले शाब्दबोध के अनुसार कर सकते हैं। शाब्दबोध का कारण तात्पर्यज्ञान है। शाब्दबोध जैसा होता है उस के अनुसार तात्पर्य का आकार निर्णीत होता है। देखिये 'नदी पी जाती है उस वाक्य को सुन कर लोगों को यह बोध स्वाभाविक रूप से होता है कि नदी का पानी पिया जाता है। मतलब नदीपद से नदीगत पानी का बोध होता है। इससे निश्चित होता है कि वक्ता की इच्छा ऐसी ही है कि 'नदीपद लोगों को नदीगत पानी का बोध कराओ। इस विवक्षा से प्रयुक्त यह भाषा व्यवहारसत्य कही जाती हैं। १ व्यवहारो हि विवक्षा लोकानां या प्रयुज्यते तया । पीयते नदी च दह्यते गिरिरिति व्यवहारसत्या सा । । ३१ ।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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