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________________ * बर्कलीमतनिराकरणम् * १३७ ते = प्रतीत्यभावाः, व्यञ्जकमुखदर्शिनः = प्रतिनियतव्यञ्जकव्यङ्ग्याः सन्तः परापेक्षा इति न च = नैव तुच्छाः । प्रतियोग्यनुस्मरणमत्र सप्रतियोगिकज्ञानसामग्रीसम्पादनार्थं न तु विकल्पशिल्पकदर्थनार्थमिति भावः । अथ धर्मिज्ञानसामग्र्या एव धर्मज्ञानसामग्रीत्वात्कथमणुत्व-महत्त्वादिधर्मिज्ञाने तज्ज्ञानहेतुविलम्ब इत्यत आह- दृष्ट सप्रतियोगिकेति । अणुत्व- महत्त्वादिसप्रतियोगिकभावविषयकं ज्ञानं स्वोत्पत्तौ प्रतियोगिस्मरणादिघटितां स्वसामग्रीमपेक्षते । न चैतावताऽणुत्व - महत्त्वादिसापेक्षभावेषु तुच्छत्वम्, अन्यथा रूपादेरपि तुच्छत्वं स्यात्, रूपादिविषयकज्ञानस्य चक्षुरादिघटितसामग्र्यपेक्षणात् । यत्तु बर्कलीनाम्नाऽऽधुनिकतत्त्वचिन्तकेन 'रूपादीनामस्तित्वं बुद्धिसापेक्षमेव न तु स्वतन्त्रं ज्ञेयत्वेन तेषां ज्ञाने एव विलयादिति प्रतिपादितं तन्न चारु ज्ञेयस्य ज्ञानानतिरिक्तत्वनियमाभावात्, अर्थक्रिया-कारित्वेन तेषां पारमार्थिकत्वात् साकारवादस्याऽन्यत्र बहुशो निराकृतत्वादिति दिक् । किञ्च घटात्यन्ताभावस्याऽपि प्रतियोगिज्ञानसापेक्षज्ञान- विषयत्वेऽपि न तुच्छत्वम् तस्य घटशून्याधि-करणरूपत्वात् । तदुक्तं लतायां चतुर्थस्तबके - "प्रतियोगिमद्भिन्नाधिकरणस्यैवाभावस्वरूपत्वे लाघवा - दिति" (शा. समु. स्त. ४. पृ. ८४) शङ्कते अथेति । धर्मिज्ञानेति । आमलकादिरूपधर्मिज्ञानसामग्र्या एव तद्गतरूपादिधर्मविषयकज्ञानसामग्रीत्वाद्यथा युगपत्फलतद्गतरूपादिप्रतिभासो भवति तथैव तद्गताणुत्व - महत्त्वादिप्रतिभासेन भवितव्यम्, एकसामग्रीकत्वादिति = अथाशयः । शंका :- अपना बोध कराने में जो पर की अपेक्षा रखता है वह तुच्छ होता है यह तो हमने पहले ही बता दिया है। अतः प्रतिनियतव्यंजक से व्यक्त होने से अणुत्व- महत्त्व आदि भाव भी विकल्परूप शिल्पी से निर्मित सिर्फ कल्पनामात्र है, न कि तात्त्विक । जो तात्त्विक है वह अपना ज्ञान कराने में अन्य की अपेक्षा क्यों करे? यह भी हमने पहले बता दिया है। क्या आप भूल गये हैं? * प्रतीत्यभाव पारमार्थिक है समाधान :- प्रतियोग्य इति । नहीं, हम भूल नहीं गये हैं। मगर आपका वह वक्तव्य ठीक नहीं है। अणुत्व - महत्त्व आदि प्रतीत्यभावों का ज्ञान उत्पन्न होने में अपनी सामग्री की अपेक्षा रखता है क्योंकि कोई भी कार्य अपनी सामग्री के बिना पेदा नहीं होता है। अणुत्व - महत्त्व आदि सप्रतियोगिक भाव विषयक ज्ञान की सामग्री प्रतियोगी के स्मरण से घटित है, प्रतीयोगी का स्मरण अणुत्व - महत्त्व आदि के ज्ञान की सामग्री का घटक है। अतः अणुत्व- महत्त्व आदि सापेक्षभावों के ज्ञान में ज्ञानसामग्रीघटकीभूत प्रतियोगिस्मरण की अपेक्षा आवश्यक होने से प्रतियोगिस्मरण भूषण है, दूषण नहीं। यदि विषय अपना ज्ञान कराने में स्वविषयकज्ञानसामग्री के घटक की अपेक्षा करे इतने से हि वह काल्पनिक माना जाय तब आपके अभिमत रूप आदि भी काल्पनिक ही हो जायेंगे क्योंकि वे भी अपना ज्ञान कराने में चक्षु आदि की अपेक्षा रखते ही हैं। अतः प्रतियोगिस्मरण की अपेक्षा होने से प्रतीत्यभावों को तुच्छ कहने का दुःसाहस ठीक नहीं है। शंका :- अथ. इति । हमारा तात्पर्य यह है कि फल आदि धर्मी का ज्ञान होने पर ही तद्गत अणुत्व- महत्त्व आदि धर्म का ज्ञान भी फलादिगत रूपादि विषयक ज्ञान की तरह उत्पन्न होना चाहिए, यदि रूपादि की तरह अणुत्व - महत्त्व आदि भी पारमार्थिक हो तो। यह एक नियम है कि धर्मिविषयक ज्ञान की सामग्री ही धर्मिगतधर्मविषयक ज्ञान की सामग्री है। जैसे, आँख आदि से आँवले का ज्ञान होने के समय पर ही आँवला के रूप का भी प्रत्यक्ष हो ही जाता है। आँवले के रूप के ज्ञान को उत्पन्न होने में अन्य सामग्री की अपेक्षा नहीं होती है। अतः हमारा प्रश्न यह है कि अणुत्व - महत्त्व आदि धर्म का ज्ञान धर्मिज्ञान के साथ साथ ही क्यों उत्पन्न नहीं होता है? पहले धर्मी का ज्ञान और बाद में अणुत्व आदि धर्म का ज्ञान ऐसा क्यों होता है ? * पारमार्थिक भाव सापेक्ष और निरपेक्षरूप से द्विविध * समाधान :- दृष्टं इति । व्यवहार में यह विचित्रता देखी जाती है कि कुछ भाव इंद्रियादि के अतिरिक्त सहकारी कारण से व्यक्त होते हैं और कुछ पदार्थ सहकारी कारण के बिना अपने आप ही व्यक्त होते हैं। ह्रस्वत्व आदि धर्म प्रतियोगिज्ञानरूप व्यंजक से व्यक्त
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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