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________________ * निरूढलक्षणोपग्रहः * उक्ता सम्मतसत्या । अथ स्थापनासत्यामाह नन्वनादिसङ्केतस्यैव शक्तित्वमस्तु किमिति शास्त्रीयत्वादिविशेषणनिवेशेनेति चेत् ? न, अनादितात्पर्यवत्यां निरूढलक्षणानामतिव्याप्तिवारणार्थं तन्निवेशौचित्यात् । एतेन जनपदसङ्केते शक्तित्वव्यवच्छेदः कृतः । ( ग्रन्थाग्रम् २०००) विपक्षे बाधकतर्कमाह- 'अन्यथेति' । अनादित्वादिशून्यसङ्केतस्याऽपि शक्तित्वाऽभ्युपगमे इति । 'लक्षणाद्युच्छेदादिति । आदिपदात् व्यञ्जनाग्रहः । गङ्गापदस्य गङ्गातीरे सङ्केतकरणेन 'गङ्गायां घोष' इत्यत्र गङ्गापदस्य जलप्रवाहतीरबोधने शक्तत्वाभ्युपगमे लक्षणोच्छेदो दुर्निवारः; सङ्केतितार्थेऽन्वयानुपपत्त्यादेर्विरहात् । एवमेव पराभिमतव्यञ्जनोच्छेदोऽपि बोध्यः । १०९ अतिप्रसङ्गादिति अतिप्रसङ्गविरहादित्यर्थः । अयं भावः व्युत्पत्तिशून्ये पिच्चादिपदे जनपदसङ्केतस्य सत्त्वेऽपि सङ्केतविशेषरूपशक्तेरभावान्न तत्र समुदायशक्तिविज्ञानवैकल्यप्रयुक्ताऽबोधकत्वं किन्तु जनपदसङ्केतज्ञानविरहप्रयुक्ताऽबोधकत्वमतो न तदघटितजनपदसत्यायां सम्मतसत्यालक्षणातिव्याप्तिः, न वा मण्डलादौ रूढपदेऽतिव्याप्तिः; मण्डं लाति = आदत्ते इति मण्डलमित्यवयवार्थबाधेनाऽबाधितत्वविशेषणविरहादिति सूक्ष्ममीक्ष यम् ।। २४ ।। - स्थापनासत्येति। अगसत्यसिंहसूरिणा तु - "गणितोवतेसट्ठाणसंभवेण सयक्खनिक्केवाति ठवणासच्चं" इत्युक्तम्। जिनदासगणिना तु "ठवणासच्चं नाम जहा अक्खं निक्खिवइ, एसो चेव मम समयो एवमादि" इत्युक्तम् । हारिभद्रवृत्तौ च "स्थापनासत्यं नाम अक्षरमुद्राविन्यासादिषु यथा- माषकोऽयम्, कार्षापणोऽयम्, शतमिदम्, सहस्रमिदशाब्दबोध होता है। मगर संकेतमात्र को शक्ति मानने पर तो गंगापद का गंगातीररूप अर्थ में ही संकेत मान कर अन्वय हो सकता है। संकेतमात्र शक्ति है - इस पक्ष में तो गंगापद की शक्ति गंगातीर अर्थ में भी रहेगी। जलप्रवाहतीररूप अर्थ भी गंगापद का शक्यार्थ होने से अन्वय की अनुपपत्ति नहीं होती है, क्योंकि जलप्रवाहतीररूप अर्थ में गोशालारूप अर्थ, जो घोषपद का शक्यार्थ है, अन्वित=संबद्ध हो सकता है। अतः संकेतमात्र को शक्ति मानने पर लक्षणा नाम की द्वितीय वृत्ति के उच्छेद होने के अनिष्ट प्रसंग को दूर करने के लिए यह मानना ही होगा कि संकेतमात्र = सकल संकेत शक्ति नहीं है, किन्तु संकेतविशेष ही शक्ति है, जो अनादि, शास्त्रीय और अबाधित है। अब लक्षणा का उच्छेद नहीं होगा, क्योंकि गंगापद का अनादि-शास्त्रीय - अबाधित संकेत तो जलप्रवाहविशेष में ही है, न कि जलप्रवाहसंबद्ध तीररूप अर्थ में गंगापद के शक्यार्थ में तो गोशालारूप अर्थ का अन्वय बाधित ही है। अतः गंगापद की जलप्रवाहविशेषसंबद्ध तीररूप अर्थ में लक्षणा करने पर ही गोशालारूप अर्थ का उसमें अन्वय= सम्बन्ध हो सकता है। अतः अनादि-शास्त्रीय- अबाधित संकेत ही शक्ति है यह सिद्ध होता है। - 'अनतिप्रसङ्गादिति.'। अब देखिये, आपने जो पूर्व में बताया था कि 'व्युत्पत्तिशून्य रूढ पदों में सम्मतसत्य भाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी' - वह ठीक नहीं है, क्योंकि व्युत्पत्तिशून्य पिच्च आदि रूढ पद में जो संकेत है वह अनादि-शास्त्रीय - अबाधित नहीं होने से शक्तिरूप ही नहीं है। अतः पिच्च आदि पद में समुदायशक्तिबोधविरहप्रयुक्त अबोधकत्व नहीं है, किन्तु जनपदसंकेतग्रहविरहप्रयुक्त अबोधकत्व है। अतः पिच्चादि व्युत्पत्तिशून्य रूढ पदों से घटित भाषा सम्मतसत्य भाषा के लक्षण से आक्रांत न होने से सम्मतसत्य भाषा के लक्षण में अलक्ष्य में गमनरूप अतिव्याप्ति दोष नहीं है। अतः सम्मतसत्य भाषा का निर्दिष्ट लक्षण निर्दोष ही है। इस सम्बन्ध में सूक्ष्मदृष्टि से अन्य विचार भी किये जा सकते हैं। इसकी सूचना देने के लिए विवरणकार ने यहाँ 'दिग्' शब्द का प्रयोग किया है ||२४|| - सम्मतसत्य भाषा का निरूपण पूर्ण हुआ । अब प्रकरणकार अवसरप्राप्त सत्यभाषा के तृतीय भेद - स्थापनासत्य भाषा का २५वीं गाथा से निरूपण करते हैं। गाथार्थ :- जिस भाषा का संकेत भावार्थ से शून्य में है ऐसी भाषा जब स्थापना में प्रवर्तमान होती है, तब स्थापनासत्या भाषा
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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