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________________ * शाकटायनाचार्याभिप्रायाविष्करणम् * सूनुनाऽपि - 'इयमयमिदमिति शब्दव्यवस्थाहेतुः अभिधेयधर्म उपदेशगम्यः स्त्री-पुं- नपुंसकत्वानीति । ९३ एतदभिप्रायेण सूत्रमप्येवं व्यवस्थितम्- "अह भंते! जा य इत्थिवऊ, जा य पुमवऊ, जा य नपुंसगवऊ, पण्णवणी णं एसा भाषा ण एसा भासा मोसा? गोयमा! जा य इत्थिवऊ, जा य पुमवऊ, जा य णपुंसगवऊ पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा एतेन घटपंदार्थः घटव्यक्तिः घटवस्त्वित्येवं प्रयोगेण घटे लिङ्गत्रयविरोधप्रसङ्गाच्छब्द एव स्त्रीत्वादिकल्पना श्रेयसीति निरस्तम्, शब्दविशेषाभिधेयत्वरूपस्त्रीत्वादित्रयस्यैकस्मिन् विरोधाभावात् । तदुक्तं प्रकृतविवरणकारेण स्याद्वादकल्पलतायाम् "यथाविवक्षमनन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद् धर्मस्य केनचित् शब्देन प्रतिपादनात् प्रतिनियतोपाधिविशिष्टवस्तुप्रतिभासस्य प्रतिनियतक्षयोपशमविशेषनिमित्तत्वेन शबलाभासानापत्तेरिति (स्या.क.ल.स्त.११ श्लो. २६) अभिधेयधर्म इत्यनेन स्त्रीत्वादीनामभिधायकधर्मत्वव्यवच्छेदः कृतः । उपदेशगम्य इति। आप्तोपदेशगम्य इत्यर्थः । उपदेशपदस्योपलक्षणत्वाद् व्याकरण - कोश - व्यवहारादीनां ग्रहः । यापनीयसम्प्रदायमुख्यशाकटायनाचार्यवचनसंवादं प्रदर्श्य प्रज्ञापनासूत्रं प्रदर्शनार्थमुपक्रमते 'एतदभिप्रायेणे 'ति । 'स्त्रीत्वादि र्वाच्यधर्म' इत्येतदभिप्रायेणेत्यर्थः । सूत्रं = प्रज्ञापनासूत्रम्। 'अपी'ति किं पुनः शाकटायनाचार्यवचनमित्यपिशब्दार्थः। 'इत्थिवऊत्ति । अयं भावः, स्त्रीवाक् = स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका भाषा खट्वेत्यादिरूपा, पुरुषवाक् = पुरुषलिङ्गप्रतिपादिका 'घट' इत्यादिलक्षणा, नपुंसकवाक् = नपुंसकलिङ्गप्रतिपादिका कुड्यमित्यादिस्वरूपा तो स्त्रीत्व है और न तो पुंस्त्व है। घट पीला है इस प्रयोग की तरह 'घट पीली है' इस प्रयोग को भी प्रामाणिक मानना होगा । लेकिन ऐसा मान्य नहीं होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि पारिभाषिक स्त्रीत्व भी वस्तु में ही है शब्द में नहीं । * स्त्रीत्वादि अर्थनिष्ठ है - शाकटायनाचार्य * - 'तदिदमुक्तं.' इति । पारिभाषिक स्त्रीत्वादि, जो कि शब्दविशेषवाच्यता स्वरूप है, बाह्य वस्तु में ही रहता है, शब्द में नहीं - यह हमारी मनमानी कल्पना नहीं है, किन्तु महावैयाकरण यापनीयसंप्रदाय अग्रणी शाकटायनाचार्य ने भी यही बताया है। सुनिये, महनीय शाकटायन आचार्य को "संस्कृत भाषा में स्त्रीत्व वाचक 'इयं' शब्द, पुंस्त्व वाचक 'अयं' शब्द और नपुंसकत्व वाचक 'इदं' शब्द के प्रयोग की व्यवस्था में नियामक है अभिधेय अर्थ में रहा हुआ स्त्रीत्व - पुंस्त्व- नपुंसकत्व, जो कि आप्त पुरुषों के उपदेश से ज्ञातव्य है "। शाकटायन आचार्य के वचन से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि स्त्रीत्वादि, चाहे पारिभाषिक हो या अपारिभाषिक हो, शब्द से वाच्य अर्थ का धर्म है, शब्द का नहीं।. शंका :- शाकटायन आचार्य तो यापनीय संप्रदाय के आचार्य हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रतिनिधि या अनुगामी आचार्य नहीं हैं। इसी सबब उनके वचन को प्रामाणिक मान कर शब्दवाच्य बाह्य अर्थ में स्त्रीत्व आदि को मानना हमें मंजूर नहीं है। हम तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुगामी हैं। अतः श्वेताम्बर आचार्य आदि से रचित या कथित संवाद हमें मान्य होगा। अतः पारिभाषिक स्त्रीत्वादि अर्थनिष्ठ है या शब्दनिष्ठ ? इस विषय में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की ओर से शास्त्रवचन दिखाना मुनासिब है । * स्त्रीत्वादि अर्थनिष्ठ है प्रज्ञापनासूत्र * समाधान :- एतदभिप्रायेण.' इति । वाह! अध जल गगरी छलकत जाए! आपकी यह शंका सांप्रदायिक व्यामोह की निर्मिति है, जो कि संसारवृद्धि का हेतु होने से त्याज्य है। अन्य दर्शन में भी कही गई जो बातें द्वादशांगीविरुद्ध नहीं हैं और प्रत्यक्ष-अनुमान आदि प्रमाण से सिद्ध होती हैं, उनका प्रेमपूर्ण स्वीकार करना ही सम्यग् दृष्टि के लिए उचित है। शाकटायन आचार्य तो जैनाचार्य ही है, जो कि यापनीय संप्रदाय में हुए हैं। उनका उपर्युक्त वचन प्रमाणिक ही है, अप्रामाणिक नहीं, क्योंकि श्रीशाकटायन आचार्य के वचन के अनुकूल भाव को प्रदर्शित करता हुआ श्रीप्रज्ञापना आगम के भाषापद में एक सूत्र आता है जिसका अर्थ यह है - "गौतमस्वामी से किये गए इस प्रश्न का कि- "हे भगवंत! स्त्रीवचन यानी स्त्रीलिंगप्रतिपादक वचन, पुल्लिंगवचन और नपुंसकलिंगवचन क्या प्रज्ञापनी भाषा हैं? प्ररूपणा करने योग्य भाषा हैं? ये वचन = भाषा मृषा भाषा तो नहीं हैं न? " - समाधान १ अय भदन्त ! या च स्त्रीवाक्, या च पुंवाक्, या च नपुंसकवाक् प्रज्ञापनी एषा भासा ? नैषा भाषा मृषा ? गौतम! या च स्त्रीवाक् या च पुंपाक, या च नपुंसकवाक्, प्रज्ञापनी ऐषा भाषा । नैषा भाषा भूषेति ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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