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________________ १४६ श्रीसम्यक्हार. नरमणकरे तेआज्ञाविचयधर्मध्याननकहिए ॥१॥ हवे विजोपायविचयधर्मध्यानकछे जेजीवमांत्रशुद्धपणुर हयुंछे जेत्रज्ञानरागद्वेषकखायाश्रवएमाहारानहिं हूंए थीन्यारोछु अनंतज्ञानदर्शनचारीत्रविर्यमांशुद्धबुद्धवना शिर्छ अजअनादिअनंत अक्षय अक्षर अनक्षर अचल अकल अमल अगम' अनमि अरुपी अकर्मा अब धक अनुदय अनुदिरक अजोगी अभोगी अरोगी अभे दिवेदि अछेदि अखेदि अकखायी असखायी अलेशि अशरीरी अनासीय प्रणाहारी अव्याबाध अनअवगा. हि अगुरुलघु परीणामि अणेंद्रि अप्राणि अजोन असं सारी अमर अपर अपरंपर अव्यापि अनाश्रित अकंप अविरुद्ध अनाव अलख अशोकी असंगी अलोक लो कालोकज्ञायक शुद्धचिदानंदमाहरोजीवछे एवोजेएकाग्र तारुपध्यानते अपायविचियधर्मध्यानजाणवो॥२॥ हवेवि पाकविचयधर्मध्यानकहेछे जेएवोजिवछे तोयपणकर्मव शेदखिछे जेज्ञानगुण ज्ञानावर्णिकर्मेदबाव्योछे एटलेत्रा ठकर्मेजिवना पाठगुणदबाव्याछे एटलेसंसारनमतां जे सुखदूखउपजेएसर्वकर्मनाकिधांछे एटलेइहांकर्मस्वरुप नंविचारवं ॥तेविपाकविचयधर्मध्यानकहिए ॥३॥ हवे चोथोपायोसंस्थानविचयधर्मध्यानकहेछे ॥ त्यांहांचौदरा जलोकछे तेमांउईश्रद्धोत्रिछोलोक तेउर्द्धलोकमांविमा
SR No.022174
Book TitleAdhyatma Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukammuni, Hirachand Vajechand
PublisherHirachand Vajechand
Publication Year1880
Total Pages738
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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