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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् कुमार्ग का वर्णन दिखते हुए लाल-लाल बिंदुकों के जाल की तरह तथा आकाश में बादलों की तरह बहुत सारा घी घट को उलटा करने पर भी रह जाता है। दुर्बलिका पुष्य के लिए मैं दूध के घड़े के समान हूँ, मुझसे उसने सारा श्रुत ग्रहण कर लिया है। फल्गुरक्षित को ज्ञान देने में मैं तेल के घड़े के समान हूँ। उसने मुझसे सविशेष श्रुत ग्रहण कर लिया है। पर अभी भी थोड़ा बाकी है। गोष्ठामाहिल के प्रति मैं घृत के घड़े के समान हूँ। उसने अभी तक भी मुझसे बहुत सारा श्रुत ग्रहण नहीं किया है। अतः सूत्रार्थ उभय से युक्त दुर्बलिकापुष्य ही गुणों की एकमात्र निधि रूप होने से आपका आचार्य होना चाहिए। गच्छ ने उसके वचनों को स्वीकार कर लिया, क्योंकि गुरुवचन कदापि उल्लंघनीय नहीं है। गुरु ने अपने पद पर दुर्बलिकापुष्य को आरूद किया एवं कहा - वत्स! फल्गुरक्षित आदि सभी सतीर्थिकों को तुम मेरी तरह ही देखना। फिर फल्गुरक्षित आदि मुनियों को कहा कि तुम लोग भी इन मुनिशेखर को मेरे जैसा या मुझसे भी ज्यादा मानना। इनके वचनों के प्रतिकूल कभी भी न जाना, क्योंकि ये अब आचार्यों में युगप्रधान आचार्य हैं। इस प्रकार आर्यरक्षित सूरि ने सभी को शिक्षा देकर पञ्च नमस्कार युक्त अनशनकर के श्रीवीतराग चरणों की शरण प्राप्त करके, ध्यान से प्रधान सुख के निधान में लीन होकर संपूर्ण विशिष्ट आराधना विधि को धारणकर दिव्य निर्मल श्री को प्राप्त किया। इस प्रकार आर्यरक्षित की कथा पूर्ण हई।।६।७४|| साधुओं का चैत्यवास योग्य नहीं है। इसे विशेष स्पष्ट करते हैं। उनकी (जिनेश्वर की) अनाज्ञा न हो, पर आधाकर्म आदि दोष रहित में निवास करते हुए कोई क्षति न हो, इसलिए कहते है - दुगंधमलिणवत्थस्स खेलसिंघाणजल्लजुतस्स । जिणभवणे नो कप्पई जइणो आसायणाहेऊ ॥७॥ (७५) दुर्गन्ध युक्त, अस्नान के कारण मलिन वस्त्र युक्त अर्थात् बाहरी रज आदि के संसर्ग से जिसके वस्त्र मलिन हो गये हों - वह श्लेष्म-युक्त नाक से पानी गिरते हुए यति का जिन भवन में रहना नहीं कल्पता है - यह जानना चाहिए। क्यों? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है - आशातना के कारणभूत होने से। कहा भी है - दुब्भिगंधमलस्साऽवि, तणुप्पेसण्हाणिया । दुहा वाउवहो वावि, तेणट्ठन्ति न चेइए ॥१॥ (प्रव. सा. गा. ४३८) स्नान करने के बाद भी यह शरीर दुर्गंध का श्राव करनेवाला है। तो साधु तो नित्य अस्नानि है। और शरीर में से दो प्रकार की वायु-ऊर्ध्व तथा अधःवायु बहती है अतः साधु को चैत्य में न खड़े रहना चाहिए, न ही बैठना चाहिए। तिन्नि वा कड्डई जाव थुईओ तिसिलोईया । ताव तत्थ अणुन्नायं कारणेण परेण वा ॥१।। (प्रव. सा. गा. ४३९) 'तीन स्तुतियाँ तीन श्लोक द्वारा अर्थात् सिद्धाणं, बुद्धाणं आदि तीन गाथा द्वारा करते हैं। इस प्रकार पूर्ण चैत्यवंदना करते हैं ऐसा जाना जाता है। और चैत्यवन्दना जब तक यति करता है, तब तक चैत्य में अवस्थान करना आज्ञा युक्त है। कारण शब्द से स्नात्र, व्याख्यान आदि जानना चाहिए। परेण से परतः अर्थात् चैत्यवन्दना के बाद भी स्नात्र-व्याख्यानादि कारणों से चैत्य में रुकना कल्पता है। 1. इस सूत्र की रचना के समय में भी जिनमंदिर में तीन स्तुति यानि सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र तक ही देववंदना थी। 202
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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