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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् रौहिणेय की कथा कार के मंगल-उच्चारणपूर्वक कहा गया-हे देव! आप इस विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए है। आप हम सभी के स्वामी हैं। हम सभी जन आपके दास हैं। अपनी अप्सराओं के साथ आप शक्र की तरह क्रीड़ा कीजिए। यह सुनकर उसने विचार किया-क्या मैं सचमुच देव रूप में उत्पन्न हुआ हूँ? उसी समय गान्धों ने नृत्य लीला आदि शुरु कर दी। उत्सव शुरु हो गया। वह विचार करने लगा कि मानो उसे गाँव से उठाकर शहर में फेंक दिया गया है। इसी बीच प्रतीहार ने आँख का इशारा किया और सहसा उठकर संगीत आदि आडम्बर को रोककर नये जन्मे हुए देव से कहा-हे देव! इस विमान का कल्प है कि पूर्व में कृत जो भी शुभाशुभ है, उसे प्रकट करके फिर यहाँ की श्री सम्पदा का भोग किया जाता है। तब उसने विचार किया कि मझ पाप करने वाले को स्वर्ग कैसे मिल स है? मेरा पता लगाने के लिए यह अभय का ही कोई प्रपंच है। अतः पाँव से काँटा निकालते वक्त वीर जिनेन्द्र के जो शब्द मैंने सुने थे, उन्हीं देवलक्षणों से मैं यथार्थ का पता लगाऊँगा। इस प्रकार विचार करके चोर ने उन्हें देखा, तो उनके पाँव पृथ्वीतल का स्पर्श कर रहे थे। उनकी पलकें झपक रही थी। पुष्पमालाएँ भी म्लान हो रही थीं। शरीर । बूद भा चमक रहा था। आर भी, सुना है कि देव मन से कार्य साधक होते हैं। अगर मैं देव हैं, तो अभी यहाँ रत्नवृष्टि होवे। लेकिन रत्नवृष्टि नहीं हुई। तब उसे सारा कपट नाटक ज्ञात हुआ। रौहिणेय ने भी अपनी शठता से अभय के प्रपञ्च पर करारा प्रहार करते हुए कहा-हे गान्धर्वो! सावधान होकर सुनो! पूर्व जन्म में मैंने सुपात्र दान दिया। जिनालय बनवाये। उसमें बिम्बों की स्थापना की। अष्ट-प्रकार की अर्चना की। गुरु की पर्युपासना करते हुए श्रुत-पुस्तिका लिखी। उस प्रकार उस ज्ञाता चोर द्वारा अपने एकमात्र शुभकर्मों की ही प्रशंसा की गयी। ____गान्धर्व देवों ने कहा-अपने अशुभ कर्म चौर्य कर्म, परदारा सेवन आदि को भी बतायें। उसने कहा-साधुसेवियों के द्वारा कुछ भी अशुभ नहीं किया जाता। अगर किया जाता, तो इस प्रकार का स्वर्ग सुख प्राप्त नहीं होता। अभयकुमार वहाँ परदे की ओट से ये सारी बातें सुन रहा था। उसने विचार किया कि निश्चय ही इसने देवस्वरूप बतानेवाले जिनेश्वर के वचन सुने हैं। अन्यथा मेरे इस बुद्धि पाश से निकलना शक्य नहीं था। तब अभय ने वहाँ आकर उसका आलिंगन करके कहा-मैं किसी के भी द्वारा अविजित था, आज तुम से हार गया। पर देव का स्वरूप तुमने अपनी बुद्धि से पहचाना या कहीं अर्हन्त् वचन सुनें। आज से तुम मेरे सहोदर जैसे हो। अतः यथावस्थित सब कुछ बताओ। अभय के सद्भाव के कारण उसने भी अपनी मूल कथा कही। वह यशस्वी रौहिणेय तस्कर मैं ही हूँ। हे मंत्रिन्! आप तो बुद्धि में बृहस्पति के समान अजेय हैं। मेरे जैसा कीड़ा आप पर विजय कैसे प्राप्त कर सकता है? किन्तु अरिहन्त वचन के द्वारा मैंने उस दुर्लघ्य को भी लांघ लिया। महानदी के पोत के समान आपकी प्रज्ञा है। हे बन्धु! अगर मैंने जिन वचनों को न सुना होता, तो किस-किस दुर्मार से राजा द्वारा नहीं मारा जाता। तब अभय उसको लेकर राजा श्रेणिक के पास गया। उसने कहा-देव! आपके पुर का चोर यह रौहिणेय है। क्रोधित होते हुए राजा ने शीघ्र ही उसका वध करने के लिए तलवार खींची। अभय ने कहा-देव! यह इस कर्म से अब लौट चुका है। मैं चोर हूँ-यह कथन इसने न बल से किया, न बुद्धि से। बल्कि मेरे द्वारा इसे भाई कहे जाने पर ही इसने स्वयं की स्व कथा कही है। फिर अभय ने अपने देवलोक की रचना की कथा राजा को बतायी। राजा ने प्रसन्न होते हुए उसे अभय का अनुज मान लिया। तब रौहिणेय ने कहा-मेरे द्वारा लुटा हुआ सारा माल ग्रहण कीजिए। अर्हत् वचन में तृष्णावान होकर अब मैं व्रत ग्रहण करूँगा। राजा के आदेश से अभय वह सारा धन ले आया एवं जिसका-जिसका जो-जो धन था, उसे उसी वक्त वापस लौटा दिया। 98 -
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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