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________________ सम्यक्त्व प्रकरणम् पूजा विधि पाठ स्तवपाठ कहलाता है। उस स्तवपाठ की मुद्रा योगमुद्रा है। वन्दन-अरिहंत-चैत्यादि को करना। जिनमुद्रा के द्वारा-यह पाँवों पर आश्रित है और योगमुद्रा हाथों को आश्रित करके होती है। यहाँ दोनों ही मुद्राओं का प्रयोग हैयह जानना चाहिए। "जय वीयराय" आदि पाठात्मक मुक्ताशुक्ति मुद्रा के द्वारा होता है। दो पाँव, दो हाथ तथा सिर - इनके द्वारा सम्यक् प्रकार से किया हुआ प्रणिपात सम्यक् प्रणिपात होता है-यह पंचांग प्रणिपात जानना चाहिए। __ अब योगमुद्रा को बताते हैं दोनों हाथों से अंगुलियों में अंगुलियाँ डालकर कमल की कली की तरह बनाकर, पेट के ऊपर कुहनी रखकर उससे प्रणिपात करना। योग अर्थात् दोनों हाथों का योजन विशेष अथवा योग यानि समाधि। अंगों के न्यास से विशिष्ट वह प्रधान मुद्रा योगमुद्रा विघ्न निवारण में समर्थ होती है। अब जिनमुद्रा के आकार को कहते हैं चार अंगुल सामने से कम, पश्चिम अर्थात् पीछे के भाग से कुछ कम तथा पाँवों का उत्सर्ग अर्थात् परस्पर परित्याग अर्थात् संसर्ग का अभाव। एक पाँव का दूसरे पाँव से अन्तर। इस प्रकार जिनमुद्रा होती है। अथवा अरिहन्त जिनेश्वर की कायोत्सर्ग में की गयी मुद्रा जिनमुद्रा कहलाती है अथवा जिनेश्वरों की विघ्न को जय करनेवाली मुद्रा जिनमुद्रा होती है। जैसे गर्भस्थ शिशु के दोनों हाथ ललाट से लगे होते हैं व शरीर संकुचित होता है, उस मुद्रा को मुक्ताशुक्ति मुद्रा कहते हैं। कोई-कोई इस मुद्रा में ललाट से हाथ अलग मानते हैं। इस गाथा में समा का मतलब अन्योन्य रूप से मिली हुई अंगुलियाँ नहीं होती। गर्भित का मतलब गर्भ में रहा हुआ उन्नत मध्यम आदि है।।४० से ४४॥ अब पूर्व में व्याख्यात शेष त्रिक के स्वरूप को निरूपित करके उसके आचरण फल को कहते हैंपयडो सेसतियत्थो तत्तो नाउण एय तिय दसगं । संमं समायरंतो विहिचेइयवंदगो होइ ॥४५॥ शेष त्रिक के अर्थ में प्रवृत्त इस त्रिक दशक को जानकर सम्यग् आचरण करता हुआ विधिपूर्वक चैत्यवंदन होता है।।४५।। इस प्रकार चैत्यवंदना विधि समाप्त हुई। अब वही किसकी व कितनी बार करनी चाहिए-इसको कहते हैं साहूण सत्तवारा होइ अहोरत्तमज्झयामि । गिहिणो पुण चियवंदण तिय पंच व सत्त या वारा ॥४६॥ साधु के लिए चैत्यवंदन सुबह, शाम तथा मध्याह्न में सात बार होता है। गृहस्थ के लिए चैत्यवंदन पुनः तीन, पाँच या सात बार होता है।।४६।। अब सात बार कैसे होता है-वह कहते हैंपडिकमणे चेइहरे भोयणसमयंमि तह य संवरणे। पडिकमण सूवण पडिबोहकालियं सत्तहा जड़णो ॥४७॥ सुबह का प्रतिक्रमण, चैत्यघर, भोजन के समय, संवरण में, शाम का प्रतिक्रमण, सोने के समय तथा प्रतिबोध काल अर्थात् सुबह उठने के समय चैत्यवंदन होता है। गृहस्थों के तीन, पाँच या सात बार होता है, वह इस गाथा से जानना चाहिएपडिक्कमओ गिहिणो वि हु सत्तविहं पंचहा उ इयरस्स । होइ जहन्नेण पुणो तीसु वि संझासु इय तिविहं ॥ (प्रवचन सारोद्धार गाथा ९१) 80
SR No.022169
Book TitleSamyaktva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata N Surana
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages382
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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