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________________ ॥१४॥ एतदाविष्टो हि जीव एकेंजियादिजातिषु दूरं मनुजत्ववित्रणासु अरघट्टघटीयंत्र क्रमण पुनःपुनरावर्त्तते एतदपि कथं सिझमित्याह-यत्कारणादीर्घामाघीयसी कायस्थितिः पुनःपुनः मृत्वा तत्रैव काये उत्पादनक्षणा नणिता प्रतिपादिता सिद्धांते एकेंघियादीनां एकेंघियहींजियादिलक्षणानां जीवानामिति. तामेवैकेजियनेदान् पृथिवीकायिकादीन् पंचैव प्रतीत्य दर्शयन्नाह;-अस्संखो सप्पिणि सप्पिणीन एगिदियाण न चनएहं, ता चेवन अणंता-दणस्सईए न बोधव्वा. ॥ १७ ॥ अज्ञान अने प्रमादी घेरायझो जीव मनुष्यपणाथी तदन विलक्षण एकेंद्रिय वगैरेनी जातिओमां अरहटनी घटमाळ माफक फरी फरीने जन्म्या करे छे. ए पण केम सिद्ध ययु ते कहे जे. जे कारणे सिद्धांतमां एकेंद्रिय बेइंद्रिय वगेरे जीवोनी कायस्थिति एटले वारंवार मरीने तेज कायमा उत्पत्ति दीर्घ एटले नारे लांबी कहेली छे. हवे एकेंद्रियना पृथिविकाय विगेरे पांचे नेदना संबंधे ते कायस्थिति बतावे ... चारे एकेंद्रियोनी असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीओ कायस्थिति छे. अने वनस्पतिनी तो तेवी अनंत नत्स ॐ पिणी अवसापणीओ कायस्थिति जाणवी. १७ (टीका) अस्संखोसप्पिणिसप्पिणी उ ति–प्राकृतत्वादविनक्तिको निर्देशस्तेनासंख्याता उत्सर्पिण्यसवपिण्यः 8A6ABRRBA श्री उपदेशपद. असंख्य नत्सार्पण। अवसापणी-शहां प्राकृतना बीधे विनक्ति वगर चनाव्युं छे. तेथी असंख्यात उत्सपि की अवसर्पिणीओ एम अर्थ करवो.
SR No.022167
Book TitleUpdeshpad Part 01
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherLalan Niketan Madhada
Publication Year1925
Total Pages420
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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