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________________ ૪૯૮ ૧૦૮ બેલ સંગ્રહ "तस्य असंचेययउ संचेययउ अ जाइ सत्ताई। जोग पप्प विणस्संति, णथि हिंसाफल तस्स ॥" __ए ओपनियुक्ति गाथानो एहवो भाव छई जे ज्ञानी कर्मक्षयनई अर्थई ऊजमाल थयो तेहनइ यतना करतां पणि जीवनई अणजाणवई (पणि) तथा जाणतां पणि यत्न करतां न राखी सकाई तेणई करी तेहना योग पामी जे जीव विणसई छई तेहनु हिंसाफल सांपरायिक कर्मरूप नथी, केवल ईर्यापथ कर्म बंधाई. इहां ज्ञानी ११ गुणठाणानो ज जे लिई छइं तो (ते) न मिलई जे माटई सामान्यथी ज ज्ञानी इहां कहिओ छई अनइ अशक्यपरिहार तो योगद्वाराई केवलिनई पणि संभवइ ॥५२॥ __'जीवरक्षोपायना अनाभोगथी ज यतिनई जीवघात हुई तेटल्यइ' ते केवलीनई न हुई' एहवं कहई छई ते न घटई-जे माटई ए रीति सहजईज केवलीनई जीवरक्षा हुई तो पन्नवणामां ३६ पदि जीवाकुल भूमि देखी केवलीनई उल्लंघन प्रलंघन क्रिया कही छई ते न मिलई ते आलावानो ए पाठः- "कायजोग जुजमाणे आगच्छेज वा चिठेज्ज वा णिसिएज्ज वा ओअट्टिएज्ज' वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज वा पाडिहारिय' पीठफलगसेज्जासंथारं पच्चप्पिणिज्जत्ति” ॥५३॥ 'वर्जनाभिप्राय छतई अनाभोगई जीवघात तथा तत्कृतकर्मबंधाभाव यतिनई हुई, अनई वर्जनाभिप्राय तो पोतानइ दुर्गतिहेतु कर्मबंध थातो जाणी हुई, ते भय केवलीनई नथी, ते माटई वर्जनाभिप्राय नथी, तथा अनाभोगइ जीवघात नी" ए कल्पना खोटी-जे माटई अशुद्धाहारनी परि जीवहिंसाइ पणि केवलीनइ स्वरूपिं वजनाभिप्राय हुइ तथा अवश्यभावी जीवघात पणि संभवई जिम यतिनई नदी उतरतां ॥५४॥ ____“वीतराग गर्हणीय पाप हिंसादिक किस्यु इ न करई, एहवं उपदेशपदमां कहिउ छई, ते माटई द्रव्यहिंसा केवलीनइ न हुइ, जे माटई ते लोकदेखीति गर्हणीय छई” ए वात कही छई ते न मिलई- जे माटई प्रतिज्ञाभंगइ ज गर्दाइ तंत नथी' अनई अकरण नियममइ उपदेशपद् पदनु वचन छइ. ते भणि भावहिंसानो अकरणनियम ज केवलीनई देखाडयो छई ॥५५॥ ___"उपशांतमोहनई मोहनीय कर्म छई ते माटइ गर्हणीय हिंसानी प्रतिसेवा हुई तो पणि मोहनीयना उदय विना उत्सूत्रप्रवृत्ति न हुई," एह लिख्यु छई ते न मिलई, जे माटइ प्रतिसेविनइ उत्सूत्र प्रवृत्ति ज हुइ, तथा अवश्यभावी द्रव्यहिंसानई दोष न कहिई तो ज ११ गुणठाणई अप्रतिसेवीपणु तथा सूत्रचारिपणु घटई ॥५६॥ ___ "गर्हणीय पाप मोहनीयमूल ते उपशांतमोहनई ज हुइ, अनई अगर्हणीय पाप अनाभोगमूल आश्रवच्छायारूप क्षीणमोहनई पणि हुई'' एहवें लिख्यु छईते कोइ ग्रंथस्यु मिलइ' नहीं, आश्रवच्छाया कहतां आश्रव ज आवई, ते तो अगर्हणीय तुम्हारई मतई भावपाप छई, तेहनी सत्ता क्षीणमोहनई कहतां घणु विरुद्ध दीसई ॥५७॥ १. प्रत्यय । २. तु अट्टि वा ।। ३. 'नथी' श६ वधाराना सामेछ.
SR No.022165
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1987
Total Pages552
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size19 MB
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