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________________ ४८ ___ 'अनाभोगमिथ्यात्वइ वर्त्तता जीवने मार्गगामी वा उन्मार्गगामी कहिइ” एहवी कल्पना करि छइ ते कोई ग्रंथइ नथी, अनइ इम कहतां सघलई ३ राशि कल्पाई ॥९॥ ___ अभव्य अव्यवहारिया कहिया छई ते उपदेशपदादिक ग्रंथसाथि तथा लोकव्यवहार साथि पणि न मिलइ ॥१०॥ 'व्यवहारिया जीव सर्व आवलिका असंख्येयभागसमयप्रमाण पुद्गलपरावर्त पछी अवश्य मोक्षइ जाइं,' एह लिख्यु छइ तिहां कोई ग्रंथनी साखि नथी । साहमु भुवनभानुकेवलिचरित्र योगबिन्दु मुख ग्रंथनी मेलि व्यवहारिया थया पछी अनंता पुद्गलपरावर्त पणि दीसई छई ॥११॥ ___सूक्ष्मपृथिव्यादिक ४ तथा निगोद २, ए छ भेद अव्यवहारिया कहिई' एह, लिख्यु छई ते न घटइ, जे माटइ-उपमितभवप्रपंचा समयसारसूत्रवृत्ति', भवभावनावृत्ति, श्रावकदिनकृत्यवृत्ति, पुष्पमालावृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, संस्कृतनवतत्त्व सूत्रादिक ग्रंथनी मेलई प्रकट ज बादरनिगोदादिक व्यवहारिया जणाई छई', एक सूक्ष्मनिगोद ज अव्यवहारिया कहिया छई ॥१२॥ 'ए उपमितिभवप्रपंचादिकनां वचन पनवणा साथई विरुद्ध अनाभोगपूर्वक' एहवु लिख्यु छई', ते पूर्वाचार्यनी आशातनानुं वचन जिनशासननी प्रक्रिया जाणते किम बोलइ ।१३। ___'अभव्य व्यवहारियाथी तथा अव्यवहारियाथी बाह्य छई' एहवु पणि व्याख्यान विधिशतकमां लिख्यु छई', ते पणि कल्पनामात्र ज ॥ १४ ॥ ___ 'अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व आभिग्रहिक सरिखु आकरूं' एहवु लिख्यु छइ ते पणि न घटई, जे माटई योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथइ अनाभिग्रहिक आदिधर्मभूमिकारूप दीसइ छई ॥ १५ ॥ 'मिथ्यात्वीनई देवाराधन अध्यवसाय जीवहिंसादिक अध्यवसायी पणि घणुं दुष्ट' एहवु सर्वज्ञशतकमां लिख्यु छई ए एकांत ग्रहवो ते खोटो, जे माटई आदिधार्मिकनई साधारणदेवभक्ति योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथमां संसार तरणतुं हेतु कहि छइ ।। १६ ।। ___'मिथ्यात्वीना गुण ते सर्वथा ज गुणमां न गणिइ' एहवं कहिई छइ ते पणि न घटइं जे माटई मिथ्यादृष्टिना गुण आव्यई ज सूधु पहिलु गुणठाणु हुई एहवु योगदृष्टिसमुच्चय ग्रंथमां कहिउ छई ॥१७॥ 'परसमयमां न कही नई स्वपमयमां कहीं, एड्वी ज क्रियाः सुपात्रदान, जिननी पूजा, सामाइक प्रमुख, मार्गानुसारिपणानु कारण' एहवु कहिउ छई, ते पणि एकांत न घटई जे माटई उभयसंमत दयादानादिक क्रियाइ पणि मार्गानुसारिपणु योगबिन्दु प्रमुख ग्रंथई' कहिउ छई ॥ १८ ॥ _ 'उत्कर्षथी अपार्द्धपुद्गलपरावर्त शेष संसार हुइ तेह ज मार्गानुसारी' एहवु लिख्यु छइ ते पणि विचारवु, जे माटई उपदेशपदमां वचनौषधप्रयोगकाल चरमपुद्गलपरावर्त ज कहिउ छई तथा योगबिन्दु नी [वी]सविशीप्रमुखग्रंथानुसारई पणि एक चरमपुद्गलपरावर्त मार्गानुसारिनो काल जणाई छई ॥ १९ !। ૧. સમયસાર નામને સવૃત્તિક ના શ્વેતાંબરીયગ્રન્થ જે છે તે અહીં અભિપ્રેત છે,
SR No.022165
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1987
Total Pages552
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size19 MB
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