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________________ सिद्धांतना अर्थने विवेचन करनारा आवा ग्रंथो वांचवाथी भारे लाभ थाय छे. तेवा अर्थनी विचारणा करवाथी तेमां कहेली क्रियाओमां प्रवर्त्तन थाय छ. पछी प्रवर्तनने लइने क्षणे क्षणे उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसाय वधे छे. ते वधेला अध्यवसायरुप निर्मळ नीरना पूरथी सर्व घाती कर्मनी कलुषता धोइ नाखवामां आवे छे. ज्यारे घातिकर्मनी कलुषता दूर थइ, एटले आ लोकालोकने जोइ शकाय तेवू केवळज्ञान थाय छे. ते पछी शैलेषीकरणथी भवोपग्राही कर्मनी प्रकृतिओने खपावी शकाय छे. आवी स्थितिपर आवेलां भव्यप्राणीओ क्षेत्र, काळ, अने संघेण विगरे समग्र भारे सामग्रीने लीधे परंपराए निर्वाण सुखने प्राप्त करे छे. आवा उत्तम प्रकारनो उद्देश आ ग्रंथथी सिद्ध थाय छ, ए वातने ग्रंथकार छेवटे नीचेनी गाथाथी जणावे छेइह धम्मरयणपगरण-मणुदियहं जे मणंति भावंति। . ते गलिय कलिलपंका निव्वाणसुहाई पावति ॥ १ ॥ .. " जे पुरुषो आ धर्म रत्न प्रकरण ग्रंथ प्रतिदिवस वांचे, अने हृदयमा भावित करे, तेओ पापरुपी पंकने दूर करी, निर्वाण सुखने पामे छ. " आ उपयोगी ग्रंथनो पूरेपूरो लाभ लेवा, तेमा आपेला धार्मिक विषयो, जो जैन बंधुओ वांचीने मनन करशे, तो अमे अमारा आ श्रमने सफळ मानी पूर्ण संतोष पामीy. ग्रंथ शुद्धिने माटे बनतो प्रयास करवामां आव्यो छे, ते छतां मनुष्य प्रकृतिने सुलभ एवा प्रमाद तथा दृष्टि दोषने लइने जे काइ स्खलना थइ होय, तेने माटे अमे विद्वगनी क्षमा मागीए छीए, अने ते संबंधी सूचना आपवानी सविनय प्रार्थना करीए छीए.
SR No.022155
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendrasuri
PublisherJain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publication Year1906
Total Pages324
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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