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________________ द्वारा सर्व साधारण के उपकार को लक्ष्य कर गागर में सागर की तरह सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार संक्षेप में उपनिबद्ध किया है । इसके मार्मिक अध्ययन से "यद् गत्वा निवर्तन्ते" इस अपुनरावृत्ति धाम को मुमुक्षु वर्ग अनायास ही अपने मुक्ति के साधनों को प्राप्त कर अवश्य ही आत्म कल्याण के लिये अग्रसर होंगे, ऐसी मैं पूर्ण आशा करता हूँ। प्राचार्य चम्पालाल शास्त्री, उदयपुर. - कुछ कहूँ - इस 'जैन तत्त्व सार' ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों ने बहुत विस्तार पूर्वक वर्णन किया है लेकिन कलियुग में मानव इस कठिन एवं क्लिष्ट ग्रन्थ को समझ नहीं सकता है, इसलिए समाज के उपकार के उद्देश्य से प० पू० आचार्य श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी म.सा० ने अपने सूक्ष्म अध्ययन और विशद अनुभव से इसका संक्षेप में बोल चाल की गुजराती भाषा में वर्णन किया है। - मुमुक्षु आत्मा इसका मार्मिक अध्ययन करके जड़ रूप कर्म से मुक्त होकर अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं । सांसारिक विषय तो सर्वथा दुःखप्रद ही हैं पर निरन्तर विपद युक्त, निरन्तर जन्म-मरण दुःख द्वन्द्वों से भव्य प्राणी ही मुक्ति के लिये सन्नद्ध होता है । "अन्तकः पर्यवस्थाता जन्मिनः सन्ततावाय । इति त्याज्ये भवे भव्ये मुक्ता तिष्ठते जनः ।" -मुनि रत्नेन्दु विजय
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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