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________________ ( ३४८ ) परमेश्वर ना नाम स्मरण नी पण आवश्यकतामूलम्यद्य वमर्चादिकपुण्यमेतत्, सर्वात्मना स्वार्थकरं निरूक्तम् । तदैतदेवाद्रियतां जनौघः,कि नामजापे विहिता प्रवृत्तिः ।२१ गाथार्थ:-आ प्रमाणे जो आ पूजादि नुं पुण्य सर्व प्रकारे स्व प्रयोजन साधक कहेलं छे, तो जन समूह आ भले आदरो परन्तु भगवान ना नाम नो जाप केम कह्यो छे ? विवेचन:-सर्व प्रकारे पोताना प्रयोजन नुं सिद्ध करनार आ पूजादि - पुण्य बताव्यु छे तो ते पूजादिक पुण्य कार्य लोको नो समूह भले करे, परन्तु भगवंत ना नाम स्मरण नी शी आवश्यकता ? अर्थात् भगवंत ना नाम नो जाप केम करवो? मूलम्:साधूच्यते साधुजन! त्वयेदं, परं विवेकोऽत्र कृतोमहद्भिः । इमे गृहस्थाःखलुयेसमर्था-स्तेद्रव्यभावाऽचनकाधिकारिणः।२२ ये योगिनो द्रव्यपरिग्रहेण, विना विभान्तीह भवे महान्तः । तेषां त्वधीशस्मृतिरेव युक्ता,तयैवतत्स्वार्थकृतिःसमस्ता ।२३ गाथार्थ:--हे श्रेष्ठ जन ! ते आ ठीक कह्य छे, परन्तु महापुरुषोए अहियां विवेक करेलो छे. जे गृहस्थो शक्तिशाली छ तेत्रो द्रव्य अने भाव पूजा ना अधिकारी छे.
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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