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________________ ( १६१ ) मां ब्रह्म ना ध्यान रूप वहाण नी खास आवश्यकता होय छे. माटे ब्रह्म नुं ध्यान ए वहाग रूप छे. जेम गृह मां प्रवेश पहेलां वहाण नी जरुर पड़े छे परन्तु प्रवेश करतां वहाण नो त्याग करवो पड़े छे, तेम मोक्ष रूप गृह मां प्रवेश करतां ध्यान रूप वहाण नो पण त्याग करवो पड़े छे अने पछी आत्मा पोतानी लुद्ध अवस्था मां स्थिर थई जाय छे माटे मुक्ति रूप गृह मां जवानी इच्छा वाला योगी पुरुषो ब्रह्म ना ध्यान ने भव रूप समुद्र मां वहाण समान छे. कालादि पांच थकी जगत नी उत्तत्ति अने तेनो नाश मूलम् - स्वामिन् ! यदीयंनहिसृष्टिरुत्थिता,सकाशतोब्रह्मणइत्यवाचिचेत् इयं कुतः स्यादपयाति वा कुतो, निगद्यतामद्य रहस्यमेतकद् ।२। गाथार्थ- हे स्वामी, जो ब्रह्म वड़े जगत नी उत्पत्ति न थई होय तो जगत कोनाथी उत्पन्न थयुं अने जगत नो संहार केवी रीते थाय तेनुं रहस्य आप कहो. विवेचन :-हे स्वामी ! आ संसार मां दरेक पदार्थो ना कर्ता पापणे प्रत्यक्ष देखाय छे, अने आप तो कहो छो के जगत नी रचना ब्रह्म थकी थई नथी अने तेनो नाश पण ब्रह्म थकी थयो नथी. तो जगत कोनाथी उत्पन्न थy अने
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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