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________________ ( १३७ ) मूलम् माया जड़ा संश्रयितु स्वयं नो, शक्तातुविष्णुःपरब्रह्मतुल्यः । जानन्स्वयंनाश्रयतेहिमायां,यत्पारतन्त्र्यादजड़ोजडंश्रयेत् ।३६। गाथार्थ - जड़ एवी माया तो विष्णु नो आश्रय लेवाने समर्थ नथी. पर ब्रह्म तुल्य विष्णु पण जाणता छता पोते माया नो पाश्रय न ले, जे कारण थी चेतन पराधीन होते छते जड़ नो पाश्रय ले छे. विवेचन:-संसार मां कोई परण प्रवृत्ति करवाने चेतनज स्वतन्त्र छे. जड़ पदार्थ कोई पण प्रवृत्ति स्वतन्त्र रीते करी शके नहीं. आजे जड़ द्वारा जे प्रवृत्ति देखाय छे तेमांप्रेरक तरीके अवश्य चेतनज होय छे. तो माया जड़ होवाथी स्वतन्त्र विष्णु नो आश्रय लेवा समर्थ नथी अने शुद्ध चैतन्य मय एवो आत्मा पण कदापि जड़ वस्तु नो आश्रय लेतो नथी. तेथी पर ब्रह्म तुल्य शुद्ध चैतन्यमय एवा विष्णु पण जाणता छतां जड़ एवी माया नो आश्रय ले नहीं. परन्तु जड़ थी पराधीन बनेल चेतन जड़ वस्तु नो पाश्रय ले छे. मूलम्अथैष विष्णुर्युगपन्नुदेत्ता, पृथक्पृथग्वा प्रतिजीवमी । आद्य यदीमां तु नुदेत्रिलोकी, तदैकरूपास्तु न भिन्नरूपा ।४० तदकरूप्याद्यदि तां पृथक्पृथग्, जीवान्प्रतीत॑नुभवेत्तदानीम् । प्रानन्त्यमस्या इयमप्यनेक-रूपा च जीवामपिभिन्नरूपाः ॥४१॥
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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