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________________ ( १३५ ) ने निरंजन, नित्य, अरूपी अने अक्रिय करीने ब्रह्म ने जगत नो कर्ता अने जगत नो संहारक अने रागद्वषादि ना पात्र रूप कहेवु एटले परस्पर विरोधी वचन थाय. विवेचन:-ब्रह्मवादिनोनुएवं कथन छे के जगत ना जीवो भले ब्रह्म थी भिन्न होय परन्तु जगत ना जीवो ना सुख-दुःख ना कारण भूत जे पुण्य अने पाप छे तेनो कर्त्ता ब्रह्मा छे. तेना जवाब मां जणाववानु के जे तमो ब्रह्म ने निरंजन एटले रागरहित, नित्य, अरूपी अने क्रिया रहित कहो छो अने बीजी बाजू जगत ना कर्ता अने संहारक तरीके अने राग-द्वेष ना पात्र रूप कहो छो तो तमारा बन्ने प्रकार ना वचन मां परस्पर विरोध जणाय छे. अतो विभिन्न जगदेतदेत-ब्रह्मापि भिन्न मुनिभिर्व्यचारि। अतस्तुसंसारगतामुनीन्द्राः,कुर्वन्तिमुक्त्यैपरब्रह्मचिन्ताम् ।३७। गाथार्थ-एटले मुनिग्रोए विचारेल जगत ब्रह्म थी भिन्न छ एम सिद्ध थयु. एटला माटे संसार मां रहेला मुनि पुगवो मुक्ति माटे ब्रह्म नु चिन्त्वन करे छे. विवेचन:-श्रा जगत ब्रह्म ना अंश रूप नथी परन्तु जगत ब्रह्म थी अलग छे एम मुनि पुगवोए कहेलुते बराबर सिद्ध थाय छे. एटलेज संसार मां रहेला मुनि पुगवो मुक्ति
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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