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________________ ( १२३ ) मूलम् तद्ब्रह्मजा सृष्टिरभापि कल्प-स्तज्जो वदद्भिस्त्विति ब्रह्म मूढं । विज्ञाप्यते किं न च तैस्तथेषां, वान्ताहृतेर्बह्मरिण कि न दोषः २० गाथार्थ :- ब्रह्मथी सृष्टि नी उत्पत्ति ने ब्रह्म थी सृष्टि नो नाश एम कहेनार ब्रह्मवादियो शु पोताना मूर्खपणा ने सूचवता नथी ? एमना मते वमन करेल श्राहार नो शु दोष नथी ? विवेचन :- कोई पण माणस पोते वमन करेल प्रहार ने फरीथी भक्षण करतो नथी छतां ब्रह्मवादिनो ब्रह्म थी उत्पन्न थयेल संसार ने फरीथी ब्रह्म मां लीन थई जव ए माणसे वमन करेल आहार ने फरीथी खावा तुल्य जेवु होवाथी प्रावी बाबत करवी ए ब्रह्म वादिग्रोनी शुं मूर्खाई सूचक निशानी नथी ? वली वमन करेल आहार नो दोष शुं ब्रह्म ने नथी लागतो ? अर्थात् जरूर लागेज. मूलम् लोके तथैकादिक ब्राह्मणादि - घातेऽत्र हत्या महती निगद्या । तन्निघ्नतो ब्रह्मरण एव सृष्टि, साकीदृशी स्याददया दयालोः ? २१ गाथार्थ:- संसार मां एकादि ब्राह्मणादि नो घात करे छते अहियां मोटी हत्या कही छे, तो ब्रह्मनी सृष्टि ने हणतां छतां दयालू एवं तेनी केवा प्रकारनी निर्दयता ?
SR No.022148
Book TitleJain Tattva Sar Sangraha Satik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherRanjanvijayji Jain Pustakalay
Publication Year1979
Total Pages402
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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