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उपदेशतरंगिणी..
१ उकारः सकलादेरषु गुरुषु व्योम स्थिरेषु दितिः श्रीरामो नयतत्परेषु परमं ब्रह्म व्रतेषु व्रतम् ॥१॥
अर्थ- खाणोमां जेम हीरानी खाण, वैद्योमा जेम धन्वंतरि, दातारोमा जेम कर्ण, देवीउमां जेम लक्ष्मी, पर्वोमां जेम दीवाली, सघला श्रदरोमां जेम ऊंकार, मोटी वस्तुमां जम आकाश, स्थिर वस्तुमां जेम पृथ्वी, अने न्यायी राजाउमां जेम श्रीरामचंजी तेम सर्व व्रतोमां ब्रह्मचर्य व्रत श्रेष्ठ बे. ॥१॥ . श्रा शीलव्रत उपरना हजारोगमे दृष्टांतो शीलोपदेशमाला, शीलकुलक आदिक ग्रंथोथी जाणी लेवां, वहीं ग्रंथगौरवताना जयथी लख्यां नथी. श्रीमन्नेमिजिनो दिनोऽघतमसां जंबूप्रन्नुः केवली सम्यक् दर्शनवान सुदर्शनगृही स स्थूलनको मुनिः ॥ साचंकारि सरस्वती च सुन्नगा सीता सुन्नमादयः शीलोदाहरणे जयंति जनितानंदा जगत्यञ्जताः॥१॥ _ वली एवीज रीते श्रीनेमिश्वर प्रजुना नाइ रथनेमिजीने जो के रागरूपी घोडे पगडी नाख्या हता तो पण, तथा पर्वतनी गुफामा रहेली नग्न राजीमतीने जोश्ने विकारयुक्त श्रया हता तो पण ते राजामतीना उपदेशथी प्रतिबोध पामी तप तपीने
मोहे गएखाजामतीना उपदेशन जोड्ने विकारण तथा पर्वतनी
रागक्षेषतुरंगम-पौनःपोनाधिरोहपतनशतैः ॥ विहिताभ्यासस्तउपरि-दत्तपदस्त्वरितमेति शिवम् ॥१॥ - अर्थ- रागषरुपी घोडापर वारंवार चडवाथी अने ते परथी सेंकडो गमेवार पडवाथी अन्यासें करीने अनुक्रमे ते घोडापर पग मुकीने प्राणी तुरत मोदमां जाय . ॥१॥