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________________ उपदेशतरंगिणी. सुपात्रोप्रते श्रापेलुं श्रोतुं दान पण बहुफलवालुं थायजे. कडुंडे के, जले तैलं खले गुह्यं, पात्रे दानं मनागपि ॥ माझे शास्त्रं सतां प्रीति-विस्तारं यात्यनेकधा ॥१॥ अर्थ-पाणीमां नाखेलुं तेल, खलप्रते कहेली गुप्तवात, सुपात्र प्रते आपेलु थोर्नु पण दान, विघानने (नणावेलुं) शास्त्र तथा सङनोनी प्रीति अनेक प्रकारे विस्तारने पामे ॥१॥ व्याजे स्याद् हिगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् ॥ क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनंतगुणं पुनः ॥२॥ अर्थ-व्याजमां बेवहुं धन थाय ने, व्यापारमा चोगणुं थाय बे, देत्रमा सो गणुं थायमे, पण सुपात्रप्रते श्रापेलुं धन अनंतगणुं थाय . ॥॥ __ माटे सुपात्रप्रते श्रापेलु धन बहु फलदायक ने, अने कुपात्र प्रते श्रापेटुं धन विपरीत फलने देनारुं . ___ हवे अहीं कोइ एम कहेके, पात्र अपात्रनो विचार तो कृपणज करे, पण उदार माणस करे नहीं. कर्वा ने के, “पाननी परीक्षा शा माटे करवी जोएं? केमके वरसतो एवो वरसाद कंश समविसमनी परीक्षा करतो नथी." तेने उत्तर श्रापे ने के, एम नहीं, केम के, वरसी वरसीउ अंबुहर, वरसीडां फल जो॥ धत्तुरए विष इकुए रस, एवड अंतर हो ॥१॥ वली स्वाति नक्षत्रमा पाणीमां पण पात्र विशेषनी अपेक्षाए मोटो अंतर जे; केमके, तेज पाणी जो सर्पना मुखमां पडे तो फेररूप धायने, अने जीपना मुखमां जो पडेने, तो मोतीरूप थशे. कडं के- .
SR No.022144
Book TitleUpdesh Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek Samiti
Publication Year
Total Pages208
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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