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________________ उपदेशतरंगिणी. १५१ .. पकवान, पुडला, लात, दाल, घी, जुदी जुदी जातिनां शाक, दही, शीखंड, लवंग, विगेरे नैवेद्य जाणवां. एवी रीते नैवेद्य पूजा जाणवी. वरतरुपवरफलाइं, ढोयश् जो जिणवरस्स नतीए । जम्मंतरेवि सहला, जायंति मोरहा तस्स ॥१॥ अर्थ- जे माणस नक्तिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रनु आगल उत्तम वृदोनां सुंदर फलो धरे , तेना सर्व मनोरथो जन्मांतरमां सफल थाय बे. __नालीएर, सोपारी, दामिम, आंबा विगेरे फलो जाणवां. एवी रीते फलपूजा जाणवी. ढोय जो जलन्नरिअं, कलसं नती वीयरायाणां ॥ सो पाव परमपयं, सुपसत्थं नावसुधीए ॥१॥ अर्थ- जे माणस नक्तिथी श्री वीतराग प्रनुने जलथी जरेलो कलश चडावे , ते लावशुद्धिथी मोक्षपदने पामे बे. कपूर, केसर, चंदन, कस्तुरी विगेरे सुगंधि अन्योथी मिश्रित करेखां जलोथी जलपूजा जाणवी. ..श्रा आठे प्रकारी पूजापर तेनां फलोनां दृष्टांतो पूजाष्टक नामना ग्रंथथी वांची लेवां. मनो वाक्कायवस्त्रोर्वी-पूजोपकरणस्थितौ ॥ शुधिः सप्तविधा कार्या, श्रीजिनेंजार्चनदणे॥१॥ अर्थ- श्री जिनेश्वर प्रन्नुनी पूजा समये, मनशुधि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, वस्त्रशुधि, नूमिशुधि, पूजानां उपकरणोनी शुद्धि, तथा स्थितिशुधि, एम सात प्रकारे शुद्धि करवी. घर जुकान, व्यापार तथास्त्रीश्रादिकना ध्यानना परिहारथी
SR No.022144
Book TitleUpdesh Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnamandir Gani, Shravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek Samiti
Publication Year
Total Pages208
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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