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________________ संसारनुं कल्पित सुख-तेनु परिणाम, (उपजाति छंद) -आत्मानमल्पैरिह वञ्चयित्वा, प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यैः ॥ भवाधमे किंजन सागराणि, सोढासि ही नारक दुःखराशीन् १ अर्थः हे मनुष्य ! थोडां अने ते पण मानी लीधेलां शरीरनां अने मननां सुखवडे आ भवमां तारा आत्माने छेतरीने अधम भवोमां सागरोपम सुधी नारकीनां दुःख सहन करीश. जुओ दुनियानो सर्व अनुभव लई राजर्षि भतृहरि पण लखे छे केतृषा शुषत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि, क्षुधातः सशालीन्कवलयति शाकादिवालतान् ।। प्रदिप्ते रागाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं, प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ॥१॥ ज्यारे तरसथी गर्छ सुकाइ जतुं होय त्यारे ठंडे पाणी पीने हाश करे छ, पण एमां सुख शु? भूकथी पीडाय छे त्यारे चोखा शाक विगेरे खाय छ। पण एमां सुख शु? रागाग्नि प्रदीप्त थाय त्यारे स्त्रीनो संयोग करे छे, आ सर्वमां सुख शुं छे ? व्याधिनां औषधने आ जीव भूलथी सुख माने छे. जरा विचारे तो मालुम पडशे के एमां सुख जेवु कोइ छेज नहि. आवां मानी लीधेलां सुखना खोटा ख्यालमा फसाइने आ जीव महा माठां कर्मा बांधीने अधोगति पामे छे. आ बधानुं कारण मात्र एक ज छ के वास्तविक सख शुं छे ? पौद्गगलिक सुख केवु छ ? कोने छे ? केटलु छ ! क्यारे छ ? शा माटे छे ? शा परिणामवाळु छ ? तेनो पूरतो विचार करतो नथी, विचार करनाराओ निःस्वार्थ बुाद्धथी कहेवा आवे छे ते सांभळतो नथी अने संसार वमळमां फसाया करे छ. परिणामे असंख्य वरसे थता एक पल्योपम जेवा दश कोडाकोडि पल्योपमथी थतां एक सागरोपम जेवा अनंता सागरोपम सुधीनो काळ नरक निगोदमां काढे छे. मनुष्यभव अनंतकाल परिभ्रमण करता कोइकज वार मळे छे त्यारे आवी रीते हार जाय छे अने पछे बाकीनो काळ संसारमा रखड्या करे छे.
SR No.022143
Book TitleUpdesh Ratnamala Tatha Prakirna Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmajineshwarsuri, Munisundarsuri, Manilal Nathubhai Doshi
PublisherSuriramchandra Diksha Shatabdi Samiti
Publication Year1935
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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