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________________ आर्य महागिरि का चरित्र ८७ पृथ्वी में विचरते रहे । अब शिष्यों तथा प्रशिष्यों को भी विधिपूर्वक सकल सूत्रार्थ सीखाने के अनन्तर आर्यमहागिरि ने अपना गच्छ सुहस्तिसूरि को सौपा। (पश्चात् उन्होंने विचार किया कि-)मनःपर्यव परमावधि, पुलाक, आहारक, क्षपकश्रेणी, उपशमश्रणी, जिनकल्प, त्रिसंयम केवलीपन और सिद्धि ये दश बातें जम्बूस्वामी के साथ विच्छिन्न हुई हैं । जिससे जिनकल्प को विच्छिन्न हुआ जानते हुए भी उसकी नकल करते हुए उस गच्छ की निश्रा में निर्मम होकर विचरने लगे। वे महात्मा उसी भांति विचरते हुए एक समय पार्टालपुर में आये। वहां सुहस्ति आचार्य ने वमुभूति सेठ को प्रतिबोधित किया था। अब वह सेठ अपने स्वजन परिजन को अनेक हेतु-युक्ति से समझाने लगा किन्तु वह किसी को प्रतिबोधित नहीं कर सका। तब सोचने लगा कि-गुणवान का वचन घी और मधु से सींची हुई अग्नि के समान शोभता है और गुणहीन का वचन तेलविहीन दीपक के समान धुधला रहता है । यह सोचकर उसने सुहस्तिसूरि से विनंति करी कि-हे भगवन् । कृपाकर मेरे घर पधारिये और मेरे स्वजनों को प्रतिबोध दीजिए । ___ तब ज्ञाननिधि गुरु उनका महान् उपकार होता जान कतिपय परिवार के साथ वसुभूति के घर आये । वहां आकर उन्होंने उनका प्रतिबोध करने के हेतु विचित्र युक्तियों से धर्मकथा करना प्रारम्भ की। इतने में वहां आर्यमहागिरि भिक्षा के हेतु आ पहुँचे । उनको देखकर सुहस्तिसूरि शीघ्र खड़े हो गये । तो वे वापिस लौट गये। तब सेठ के मन में आश्चर्य होने से उनने कहा कि-भला क्या आप से भी बड़े मुनीश्वर हैं ? कि-जिससे तुमने उनको देखकर इस प्रकार अभ्युत्थान किया ? तब सुहरित बोले
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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