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________________ आचार्य के छत्तीस गुण ऐसे अपने आपको वा दूसरे को अनेषणीयादिक से निवार कर हितार्थ में लगाना । ११७ 1 दोषनिर्घातविनय के भी चार भेद हैं। यथा:-क्र द्ध का क्रोध उतारना । दुष्ट याने विषय से दूषित का दोष दूर कराना । परसमय में कांक्षा रखने वाले की कांक्षा को छेदन करना तथा स्वयं क्रोध, दोष, कक्षा छोड़कर आत्मध्यान में रहना । इस प्रकार आपको व दूसरे को जो सुधारना सो विनय है । इस प्रकार यहां दिग्मात्र बताया है। विशेष जानना हो तो व्यवहार सूत्र की टीका से जान लेना चाहिये । इस भांति सब मिलकर गणि के छत्तीस गुण होते हैं । तीसरी (योजना) यह है : पटक, काय ट्रक और अकल्पपट्क मिलकर अठारह तथा आचारवत्त्व आदि आठ और दश प्रकार का प्रायश्चित, इस तरह आचार्य के छत्तीस गुण होते हैं । बतक और काट्क प्रसिद्ध हैं । अकल्पादिषट्क इस प्रकार हैं: - अकल्प दो प्रकार का - शिक्षकस्थापनाकल्प और अकल्पस्थापनाकल्प | उनमें पहला यह है कि:- जो शिष्य पिंडेषणा, शययेषणा, वस्त्रैणा और पात्रैषणा ये चार अध्ययन न सीखा हो, उसके द्वारा लाये हुए आहारादि अन्य यतियों को कल्प्य नहीं हैं। तथा ऋतुबद्ध काल में असमर्थ को दीक्षा नहीं देना । वर्षाकाल में प्रायश: दोनों को भी दीक्षा नहीं देना । इसका नाम शिक्षकस्थापना कल्प है। दूसरा अकल्पस्थापनाकल्प सो अनेवणीय पिंड शय्या-वस्त्रपात्र सम्बन्धी अकल्प जानो । गृहिभाजन सो कांसे को कटोरी आदि । पर्यक अर्थात् पलंग आदि पर बैठना । निषद्या अर्थात्
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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