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________________ कीर्तिचंद्र राजा की कथा वे दोनों श्रेष्ठ पुत्र बालवय व्यतीत करके मनोहर यौवनावस्था को प्राप्त हुए । ५७ अब वे मित्रों की प्रेरणा से द्रव्योपार्जन करने के हेतु, मां बाप की मनाई होते हुए भी बेचने का माल साथ में लेकर देशान्तर को रवाना हुए। मार्ग में उनके अन्तराय कर्म के उदय से उनका बहुतसा धन भीलों ने लूट लिया, उससे जो कुछ बचा. उसे लेकर वे धवलपुर नगर में आए । उस द्रव्य से वे वहां दूकान लगा कर व्यापार करने लगे । उसमें उन्होंने सहस्रों दुःख सहकर दो हजार स्वर्ण मुद्राएं कमाई । जिससे उनकी तृष्णा बहुत बढ़ गई, उससे वे कपासिये तथा तिल की बखारें भरने लगे, कृषि करने लगे और ईख के बाड़ कराने लगे व त्रस जीवों से मिश्रित तिलों को घाणी में पीलाणे लगे, गुलिका आदि का व्यापार करने लगे । इस प्रकार करते हुए उनके पास पाँच सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ हो गई । तब उनको दश सहस्र की व क्रमशः लक्ष स्वर्ण मुद्राओं की इच्छा हुई, उतनी प्राप्त हो जाने पर लोभसागर नामक मित्र के प्रताप से करोड़ मुद्राएं पूरी करने की इच्छा हुई । तत्र भिन्न २ देशों में गाड़ियों की श्रेणियां भेजने लगे, समुद्र में जहाज चलाने लगे तथा ऊँटों की कतारें फिराने लगे व राज दरबार से भांति-भांति के इजारे पट्टे से रखने लगे तथा कुट्टनखाने (गणिका गृह ) रखकर भी धनोपार्जन करने लगे एवं घोड़ों की शर्तों के अखाड़े चलाने लगे । इत्यादिक करोड़ों पाप कर्मों द्वारा यावत् उनको करोड़ सुवर्ण मुद्राएं भी मिल गई, तथापि लोभसागर नामक पाप मित्र के वश उनको करोड़ रत्न प्राप्त करने की इच्छा हुई ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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