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________________ प्रभास की कथा २८९ धम्मरयणत्थिणा तो, पढमं एयज्जणंमि जइयव्वं । जं सुद्धभूमिगाए, रेहइ चित्तं पवित्तं पि ॥३१॥ ऐसा है तो क्या करना चाहिये ? सो कहते हैं अतः धर्मरत्नार्थियों ने प्रथम इन गुणों को उपार्जन करने का यत्न करना चाहिये, क्योंकि पवित्र चित्र भी शुद्धभूमिका ही में शोभता है। पूर्वोक्त स्वरूपवान धर्मरत्न उसके अर्थियों ने याने उसके प्राप्त करने के इच्छुकों ने इस कारण से प्रथम याने आदि में इन गुणों के अर्जन में याने वृद्धि करने में यत्न करना चाहिये क्योंकि वैसा किये बिना धर्म प्राप्ति नहीं होती । यहीं हेतु कहते हैं क्योंकि शुद्धभूमिका में याने कि प्रभास नामक चित्रकार को सुधारो हुई भूमि के समान निर्मल आधार हो में चित्र याने चित्रकर्म उत्तम किया हुआ हो वह भी शोभा देने लगता है। प्रभास चित्रकार की कथा इस प्रकार है:यहां जैसे नाग व पुन्नाग नामक वृक्षों से कैलाश पर्वत के शिखर शोभते हैं। वैसे हो नाग ( हाथी) और पुन्नाग (महान् पुरुषों) से सुशोभित और अतिमनोहर धवलगृह वाला साकेत नामक नगर था। वहां शत्रु रूपी वृक्षों को उखाडने में महाबल (पवन) समान महाबल नामक राजा था। वह एक समय सभा में बैठा हुआ, दूत को पूछने लगा कि - हे दूत ! मेरे राज्य में राज्यलीलोचित कौनसा काम नहीं है ? दूत बोला कि -हे स्वामी! एक चित्रसभा के अतिरिक्त अन्य सब हैं। क्योंकि नयन-मनोहर अनेक चित्र देखने से राजा लोग स्पष्टतः भांति-भांति के कौतुक प्राप्त कर सकते हैं । यह सुन महान् कौतूहली (शौकोन) राजा ने प्रधान मन्त्री को आज्ञा दी
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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