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________________ २८६ लब्धलक्ष्य गुण पर सीखने लगा । पश्चात् तीर्थवन्दन को आये हुए सूरि के चरण कमल में चतुराई से सर्व श्रावकों के भांति रहकर वन्दन करने लगा। वहां गुरु के चरण में अपना सिर रखकर उन को प्रणाम करने लगा। जिससे उसने लक्ष्य रखकर गंध द्वारा एक सौ सात औषधियां पहिचान ली। . पश्चात् उन औषधियों द्वारा उसने अपने पैरों में लेप किया। उसके योग से वह आकाश में मुर्गे की भांति उड़ने व गिरने लगा। इतने में पुनः गुरु वहां आये । उन्होंने उसको यह गति देखकर पूछा तो उसने कहा कि-हे प्रभु! यह आपके चरण का प्रसाद है मैंने उनकी गंध लेकर इतना ज्ञात किया है। पश्चात् वह बोला कि-हे प्रभु ! कृपाकर मुझे सम्यक् योग बताइए ताकि मैं कृतार्थ होऊं, क्योंकि-गुरु के उपदेश बिना सिद्धियां प्राप्त नहीं होती। तब आचार्य सोचने लगे कि ओहो ! इसका लब्धलक्ष्यपन कैसा उत्तम है कि इसने सहज ही में धर्म तथा ओषधियों का ज्ञान प्राप्त कर लिया । इसलिये यह अन्य (विषय) भी सुख पूर्वक जान सकेगा । यह सोचकर सूरि बोले कि जो तू मेरा शिव्य हो जावे तो मैं तुमे योग बताऊ । तब वह बोला कि-हे नाथ ! मैं यतिधर्म का भार उठाने को समर्थ नहीं किन्तु हे प्रभु! आपसे गृहस्थ धर्म अंगीकार करूगा । ठोक, तो ऐसा ही करो यह कह आचार्य ने उससे सम्यक्त्व पूर्वक निर्मल गृहस्थधर्म स्वीकृत कराया और बाद में कहा कि साठी चांवलों के पानी से तेरे पगों में लेप कर । यह सुन उसने वैसा ही करने पर उसको आकाश में गमन करने की लब्धि प्राप्त हुई । उस लब्धि के प्रभाव से वह गिरनार आदि
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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