SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ लब्धलक्ष्य गुण पर वे किसी समय किसी काम के हेतु वसति के बाहर रुक हुए थे। इतने में वहां कोई बादी आ पहुँचे। वे उन्हें आचार्य का स्थान पूछने लगे। तब इन्होंने उनको टेढ़ा व लम्बा मार्ग बताया कि जिससे वे विलम्ब से पहचें और स्वयं उनके पहिले ही वसति में आ पहुँचे। वहां आकर कपट करके किवाड़ बन्द करके सो रहे । इतने में उक्त वादी आकर पूछने लगे कि - पातिक सूरि कहां हैं ? तो शिष्य बोले कि - गुरु सुख पूर्वक सो रहे हैं । तब उन्होंने उपहास करने के हेतु मुर्गे का शब्द किया । तो गुरु ने बिल्ली का शब्द किया । तब वे बोले कि - हे मुनीश्वर ! आपने हम सब को लीला बता कर जीत लिया है । अब दर्शन दीजिए। तब वे शीघ्र उठे। उन्हें बहुत छोटे देखकर उनको जीतने के लिये वादी इस प्रकार कहने लगे हे पालित्तक ! बोलो, सारी पृथ्वी में भ्रमण करते तुमने अग्नि को चंदन रस के समान शीतल कहीं भी देखी है अथवा सुनी है ? श्री कालिक नामक सूरि जो कि नमि विनमि के वंश में रत्न समान हुए । उनके अनन्तर उनके शिष्य वृद्धवादी हुए । तत्पश्चात् उनके शिष्य सिद्धसेन हुए जो कि ब्राह्मण कुल में तिलक समान थे और वर्तमान में कपट निद्रा धारण करने से वास्तविक कपट रूप जगत् में विख्यात ये संगमसूरि हुए और उनका शिष्य मैं पादलिप्त हुआ हूँ । इस प्रकार जिन प्रवचन रूप नभस्तल में चन्द्र समान उत्तम वादी व कवि ऐसे अपने पूर्व पुरुषों का वर्णन करके पादलिप्त बोले कि - अपयश का अभिघात लगने से बचे हुए शुद्धचित्त पुरुष को अग्नि उठाने में चन्दन के रस समान शीतल लगती
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy