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________________ भीमकुमार की कथा २७३ मुख ! मैं इसे कैसे छोडू १ क्योंकि आज मैं ने क्षुधित होकर यह भक्ष्य पाया है। कुमार बोला कि-हे भद्र ! यह तो तूने उत्तरवैक्रिय रूप किया जान पड़ता है तो भला, यह तेरा भक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि देवता को कवलाहार नहीं है । व जो अबुध हो वह तो कुछ भी करे परन्तु तू तो विबुध है । अतः तुझे ऐसे दुःख से रोते हुए जीवों को मारना उचित नहीं । कारण कि जो रोते हुए प्राणियों को किसी प्रकार मार डालते हैं वे लाखों दुःखों की रोमावली से घिरकर भयंकर संसारमें भटकते हैं। वह बोला कि-यह बात सत्य है, परन्तु इसने पूर्व में मुझे इतना दुःख दिया है कि जो इसको सौ बार मारू तो भी मेरा कोप शान्त न होवे । इसी से इस पूर्व के शत्रु को बहुत कदर्थना पूर्वक अति दुःख देकर मैं मारूगा । तब राजकुमार बोला किहे भद्र ! यदि तुझे अपकारी के ऊपर कोप होता हो तो कोप के ऊपर कोप क्यों नहीं करता ? क्योंकि कोप तो सकल पुरुषार्थ को नष्ट करने वाला और संपूर्ण दुःखों का उत्पादक है । अतः इस बेचारे को छोड़ दे और करुणारस-युक्त धर्म का पालन कर कि-जिससे तू भवांतर में दुःख रहित मोक्ष पावे। ___ इस प्रकार बहुत समझाने पर भी वह दुष्टात्मा उसे छोड़ने को तैयार न हुआ। तब कुमार सोचने लगा कि-यह कुछ नम्रता से नहीं समझेगा । उस क्र द्ध धृष्ट को धक्का देकर राजकुमार ने उक्त पुरुष को अपनी पीठ पर उठा लिया। जिससे वह कुपित हो भयंकर रूप धारण कर मुह फाड़कर भीम को निगलने के लिये दौड़ा । तब कुमार उसे पैर से पकड़ कर सिर पर घुमाने लगा। तब वह सूक्ष्म होकर कुमार के हाथ से छूट कर उसके गुण से प्रसन्न हो वहीं अदृश्य हो गया।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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