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________________ २४४ कृतज्ञता गुण पर इतने में एक बृद्धा स्त्री को जंभाई आने लगी, उसने अपना अंग मरोड़ा । भुजाएं ऊंची करी व केश छोड़े । उसने चीसे मार कर विकराल रूप धारण किया । यह देख लोग भयभीत हो पूछने लगे कि हे भगवती ! तू कौन है ? सो वह. . वह बोली कि मैं वनदेवता हूँ और मैंने इस वामदेव को ऐसा किया है, कारण कि-इस पापी ने विमल समान सरल मित्र के साथ भी प्रपंच किया है । इसने ऐसा २ कपट करके उक्त रत्न अमुक स्थान में छुपाया है । इसलिये सज्जनों के साथ उलटा चलने वाले इस वामदेव को मैं चूरचूर करूंगी। तब विमल ने देवी को प्रार्थना करके अपने मित्र को छुड़ाया। इस समय वह धिक्कार पाकर तृण से भी हलका हो गया । तथापि विमल कुमार गांभीर्य गुण से स्वयंभूरमण समुद्र को भी जीतने वाला होकर ( अति गंभीर होकर ) उसकी ओर प्रथम के समान ही देखता हुआ किसी भांति भी क्रुद्ध न हुआ। एक दिन कुमार मित्र के साथ जिनमंदिर में जा ऋषभदेव स्वामी की पूजा करके इस प्रकार स्तुति करने लगा । हे श्री ऋषभनाथ ! आपके चरण के नख की कांति विजय हो कि-जो भाव शत्रु से भयभीत तीनों जगत् के जीवों को वनपिंजर के समान बचाती है। हे देव ! आपके निर्मल चरण कमल के दर्शन करने के हेतु प्रतिदिन दूर दूर से क्लेशककास छोड़ कर राजहंस के समान भाग्यशाली जन दौड़ते आते हैं । हे जगन्नाथ ! महान् भवदुःख जाल से घिरे हुए जीवों को आप ही एक मात्र शरण हो जैसे कि-शीत से पीड़ित मनुष्यों
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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