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________________ पशुपाल की कथा सार्थक करना, इस प्रकार उसने मणि के सन्मुख कहकर पुनः निम्नानुसार कहा । .. ग्राम अभी दूर है (तब तक) हे मणि ! तू मेरे सन्मुख कुछ वात्तो कह अगर तू नहीं जानती हो तो मैं तू मे कहता हूं, तू एकाग्र होकर सून। . . . एक हाथ का देवगृह है, उसमें चार हाय का देव रहता है-- ऐसा वारंबार कहने पर भी माणे तो कुछ भी न बोली। ___ इतने में वह गुस्सा होकर बोला कि--जो मुझको तू हुकारा भी नहीं देती तो फिर मनवांछित सिद्ध करने में तेरा क्या आशा रखी जा सकती है। . . इसलिये तेरा चिंतामणि नाम झूठा है अथवा वह सत्य ही है- क्योंकि तेरे मिलने पर भी मेरे मन की चिन्ता टूटी नहीं। - और मैं जो कि राब और छांछ बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता हूं, वह मैं जो तीन उपवास करू तो क्या यहां मर न जाऊँ? इसीलिये उस वणिक ने मुझे मारने के लिये तेरी प्रशंसा करी जान पड़ती है, अतएव जहां पुनः न दीख पड़े वहां चला जा, ऐसा कह उसने वह श्रेष्ठ मणि पटक दी। (इस समय) श्रेष्ठ पुत्र जयदेव (जो कि पशुपाल के पीछे २ चला आ रहा था) अपना मनोरथ पूर्ण होने सहर्षत होकर प्रणाम पूर्वक उक्त चिंतामणि लेकर अपने नार की ओर चला। .. अब उस जयदेव ने चिंतामणि के प्रभाव सं धनवान हो मार्ग में महापुर नामा नगर निवासी सुबुद्धि श्रेष्ठ को कन्या रत्नवती से विवाह किया तथा बहुत से नौकर चाकर साथ में ले चलता हुआ और लोगों से प्रशंसित होता हुआ वह अपने हस्तिनापुर नामक नगर में आकर मा बाप के चरण में पड़ा।. . . . .
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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