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________________ २३४ कृतज्ञता गुण पर से वृक्ष में अपने स्कन्ध को नहीं विसता । तथा प्रायः प्राणी अपने भाव के अनुसार ही फल की इच्छा करते हैं । देखो ! कुत्ता कवल मात्र से तृप्त रहता है, तो सिंह हाथी का कुस्थल विदोर्ण करके तृप्त होता है और चूहे को गेहूँ का एक दाना मिल जावे तो हाथ ऊंचे करके नाचता है और हाथी को मलीदा ( पक्वान्न विशेष ) राजा का दिया हुआ मिलने पर भी वह बेपरवाह होकर अवज्ञा से उसे खाता है । प्रथम जिस समय मैंने तेरे वस्त्र में रत्न बांधा तब तू उदास था और उस समय तुझ में हर्ष का लवलेश मात्र भी मेरे देखने में नहीं आया था. किन्तु अब जिन प्रवचन का लाभ होने से तू हर्ष से रोमांचित हो गया है । हे उत्तम पुरुष ! यही तेरी श्र ेष्ठता की निशानी है। किन्तु मुझे जो तू गुरु मानता है, सो तुझे योग्य नहीं। क्योंकि तूने तो स्वयं ही प्रतिबोध पाया हैं। मैं तो मात्र निमित्तदर्शक हूँ । देखो ! जिनेश्वर भगवान के स्वयं बुद्ध होते हुए यद्यपि उनको लोकांतिक - देव प्रतिबोधित करते हैं, किन्तु इससे वे उनके गुरु नहीं हो सकते । वैसा ही मुझे भी समझ । तब राजकुमार बोला कि जिन भगवान तो संबुद्ध होते हैं। इससे उनके बोध में देवता - देव तो हेतु भूत भी नहीं होते । तू तो मुझे ऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा बताकर वास्तविक धर्म को प्राप्त कराने वाला होने से स्पष्टरीति से गुरु होता है । कहा भी है कि - जिस साधु अथवा गृहस्थ को जिसने शुद्ध धर्म में लगाया हो, वह उसका धर्मदाता होने से उसका धर्मगुरु माना जाता है, और ऐसे शुभ गुरु के प्रति विनयादि करना
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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