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________________ विमलकुमार की कथा २३१ करने में मति होवे और दूसरा जो कि उपकार करके गर्व न करे । अतएव आज्ञा दीजिये कि-मैं आपका क्या इष्ट कार्य करू? तब दांत को कांति से भूवलय को प्रकाशित करता हुआ, विमल बोला-हे रत्नचूड़ तू' इसलोक में चूड़ामणि समान है। और तू ने अपना रहस्य प्रकट किया याने सब हो गया समझ। कहा है कि-सज्जनों के हजारों वाक्यों से अथवा कोटिशः स्वर्ण मुद्राओं से कोई सुन्दरता सिद्ध नहीं होती, परन्तु उनके चित्त की प्रसन्नता ही से वास्तविक भाव मिलन होता है । तब प्रीतिपूर्वक विद्याधर बोला कि-हे कुमार ! कृपा कर यह चिंतामणि समान एक रत्न है सो इसे ग्रहण करो। विमल बोला कि मानले कि तू'ने दिया और मैंने लिया 'किन्तु इसे अपने पास ही रहने दे तथा अति हठ करना छोड़ दे । विद्याधर ने निर्मल भाव विमल को निरीहता देख कर उसके कपड़े में उक्त रत्न बांध दिया । पश्चात् बामदेव को पूछने पर उसने हर्षित होकर उसे विमलकुमार के माता पिता का नाम स्थान बताया। इस प्रकार आश्चर्यकारक विमलकुमार का वृत्तान्त सुनकर विद्याधर सोचने लगा कि-इसको मैं जिन प्रतिमा बता, धर्मबोध देकर उपकार का बदला दू। पश्चात् विद्याधर बोला कि- हे कुमार ! इस वन में मेरे मातामह का बनवाया हुआ आदीश्वर भगवान का मंदिर है। इसलिये मुझ पर कृपा करके उसे देखने के लिये चलिये । इस बात को स्वीकार कर सब जिन मंदिर की ओर रवाना हुए। वह मंदिर सैकड़ों थंभों पर बंधा हुआ था । जिससे ऐसा
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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