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________________ मध्यमबुद्धि की कथा १६५ ___ मोह बोला कि-हे पुत्र ! यह तो मेरे अंग को पामा के समान पीड़ा करता है । इसलिये तू यहां रहकर चिरकाल राज्य पालन कर । संतोष शत्रु को मारने के लिये युद्ध करने को मैं ही जाऊंगा। तब रागकेशरी कान पर हाथ रख कर बोलने लगा किहाय, हाय ! यह कौनसा भोग प्राप्त हुआ । आपका शरीर तो अनन्त काल पयंत एक ही स्थान में रहना चाहिये। इस प्रकार रोकते हुए भी मोह सब के आगे होकर रवाना हुआ है । यह उसी प्रस्थान का कारण है । यह कह कर विपाक शीघ्र ही वहां से चला गया । तब मैं सोचने लगा कि- स्पर्शन की सर्व शोध तो मैं ने प्राप्त करली परन्तु इसमें इसने जो संतोष से स्पर्शन के पराभव की बात कही है, वह अघटित जान पड़ती है। इससे पुनः पछने पर उसने सदागम का नाम लिया। तब मैंने तर्क किया कि-संतोष सदागम का कोई अनुचर होना चाहिये । इस प्रकार विचार करता हुआ मैं आपके सन्मुख आया हूँ। अब आप स्वामी हो । बोध बोला कि-हे प्रभाव ! तू ने ठीक कार्य किया। पश्चात उसे साथ लेकर बोध मनीषीकुमार के पास गया । कुमार को नमन करके बोध ने उक्त वृत्तान्त सुनाया । जिससे कुमार आनन्दित हो प्रभाव को पूजने लगा। ___ पश्चात् किसी समय मनीगीकुमार ने स्पर्शन को कहा किहे स्पर्शन ! क्या तुझे सदागम ही ने मित्र-विरह कराया है ? अथवा इस कार्य में अन्य भी कोई सहायक था ? तब स्पर्शन बोला कि-हां, था । परन्तु हे मित्र ! उसकी बात मत पूछ । कारण कि, वह मुझे बहुत दुःख देता है। वास्तव में तो वही सब कत्ती हता है । सदागम तो केवल उपदेश करने वाला है । तब कुमार ने पुनः पूछा कि- उसका क्या नाम है, सो कह ।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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