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________________ १९० वृद्धानुगत्व गुण पर हेयोपादेय विकलो, वृद्धोपि तरुणाप्रणीः । तरुणोपि युतस्तेन, वृद्धैर्वृद्ध इतीरितः ॥ ७ ॥ ( इति ) (सारांश यह है कि ) जो वृद्ध होते भी हेयोपादेय के ज्ञान से हीन हो वह तरुणों का सरदार ही है, और तरुण होते भी जो हेयोपादेय को ठीक समझकर उसके अनुसार चलता हो वह वृद्ध है । इसलिये ऐसा वृद्ध पुरुष पापाचार याने अशुभ कर्म में कभी प्रवृत्त नहीं होता । क्योंकि वह वास्तव में यथावस्थित तत्त्व को समझा हुआ होता है । जिससे वृद्ध पुरुष अहित के हेतु में प्रवर्त्तित नहीं होता, उसी से वृद्धानुग - वृद्ध के अनुसार चलने वाला पुरुष भी इसी प्रकार पाप में प्रवर्त्तित नहीं होता, यह मतलब है । बुद्धिमान वृद्धानुग मध्यमबुद्धि के समान किस हेतु से ऐसा है, सो कहते हैं: - जिस कारण से प्राणियों के गुण संसर्गकृत हैं, याने कि संगति के अनुसार होते हुए जान पड़ते है, इसीसे आगम में कहा है कि उत्तमगुणसंसग्गी, सीलदरिद्द पि कुणइ सीलड्ढ | जह मे रुगिरिविलग्गं, तणपि कणगत्तणमुवेह ॥ १ ॥ उत्तम गुणवान् की संगति शोलहीन को भी शीलवान करती है, जैसे कि मेरुपर्वत पर ऊगी हुई घास भी सुवर्णरूप हो जाती है । मध्यमबुद्धि का चरित्र इस प्रकार है । इस भरतक्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर है । उसमें बलवान कर्मविलास नामक राजा था । उसकी यथार्थ नाम शुभसुन्दरी नामक एक स्त्री थी और दूसरी सकेल आपदा की शाला
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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