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________________ १६२ सत्कथ गुण पर कईयों को मेरे पुत्र के साथ रहकर चारित्र से भ्रष्ट किये हैं। उनकी संख्या ही कौन कर सकता है ? तथा मैंने जो चौदह-पूर्विओं को भी धर्म से डिगा दिये हैं । वे अभी तक आपके चरणों में धूल के समान लौटते हैं। यह सुन मोह राजा सोचने लगा कि-मैं धन्य हूँ कि- मेरे सैन्य में स्त्रियां भी ऐसी जगद् विजय करने वाली हैं। यह सोचकर मोह राजा ने उसे उसके पुत्र के साथ अपने हाथ से बीड़ा दिया तथा हर्षित हो उसका सिर चूमा । पश्चात् वह बोला कि-मार्ग में तुझे कुछ भी विघ्न न हो, तेरे पीछे तुरन्त ही दूसरा सैन्य आ पहूँचेगा । यह कह उसे विदा किया । वह रोहिणी के समीप आ पहुँची। अब उस योगिनी के उसके चित्त में प्रवेश करने से वह (रोहिणी ) जिन मंदिर में जाकर भी भिन्न २ श्राविकाओं के साथ अनेक प्रकार को विकथाएं करने लगी। उसने जिनपूजा करना छोड़ दिया। प्रसन्न मन से देववंदन छोड़ दिया और अनेक रीति से बकत्रक करती हुई दूसरों को भी बाधक हो गई। ___ श्रीमन्त की लड़की होने से कोई भी उसे कुछ कह नहीं सकता था । जिससे वह विकथा में अतिशय लीन होकर स्वाध्याय ध्यान से भी रहित होने लगी। तब एक श्रावक ने उसे कहा कि-हे बहिन ! तू अत्यन्त प्रमत्त होकर धर्मस्थान में भी ऐसी बातें क्यों करती है ? क्योंकि जिनेश्वर ने भव्यजनों को विकथाएं करने का सदा निषेध किया है । वह इस प्रकार है कि- अमुक स्त्री सौभाग्यशाली, मनोहर, सुन्दर नेत्रवाली तथा भोगिनी है। उसकी कटि मनोहर है । उसका कटाक्ष
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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