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________________ पुरन्दरराजा की कथा १४२ नहीं । कहा है कि-विद्वान पुरुष ने समय आने पर विद्या साथ में लेकर मरना अच्छा है, परन्तु अपात्र को न देना और वैसे ही पात्र से छुपाना भी नहीं। इस प्रकार चिन्ता करते मुझे उसी विद्या ने बताया है किगुणराग आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त तू ही सुयोग्य है । इसलिये वह तुमे देने के लिये मैं यहां आया हूँ । अतएव हे महाभाग ! उसे ले कि जिससे बोझा ढोने वाला जैसे बोझा उतार कर सुखी होता है, वैसे मैं भी सुखी होउं । ____ यह महा विद्या विधि पूर्वक सिद्ध करने से नित्य सिरहाने में सहस्र स्वर्णमुद्रा देती रहती है। और इसके प्रभाव से प्रायः लड़ाई (युद्ध) में पराजय नहीं होती तथा इन्द्रियों से पृथक रही हुई वस्तुए भी इससे जानी जा सकती है । तब उल्लसित विनय से मस्तक कमल नमा, हाथ जोड़ कर राजकुमार इस प्रकार बोला। गंभीर, उपशान्त, निर्मल गुणरूपी रत्न के रोहणाचल समान बुद्धि की समृद्धि युक्त, गुणीजन पर अनुराग रखनेवाले, जगत् में चारों ओर विस्तृत कीर्तिवाले और परोपकार करने ही में दृढ़ मन रखनेवाले आपके समान सत्पुरुष ही ऐसे रहस्य को योग्य माने जाते हैं। - मैं तो बाल व तुच्छ बुद्धि वाला हूं। मुझ में कुछ भी शुद्धज्ञान विज्ञान नहीं। इससे मेरे गुण किस गिन्ती में हैं, व मुझ में क्या योग्यता है, ऐसा ही मैं तो विश्वास रखता हूँ । किन्तु आपके समान महापुरुष मेरे समान लघु जनों को आगे रखें तो अलबत्तः कुछ कार्य कर सकते हैं। जैसे कि-सूर्य का आगे किया हुआ अरुण भी अंधकार को दूर कर सकता है । वानर का पराक्रम तो इतना ही है कि वह एक शाखा से कूद कर दूसरी शाखा पर जा सकता है, किन्तु समुद्र कूद जाना यह तो स्वामी ही का प्रभाव है।
SR No.022137
Book TitleDharmratna Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size20 MB
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